अरहर जून में बोया जाता है, पर इसका पुष्पन के समय कीटो का प्रकोप होता है जिससे उकठा रोग एक गंभीर समस्या बन जाता है और यह उत्पादन को भी प्रभावित करता है। अगर खेत के किसी विशेष क्षेत्र में ऐसे पौधे देखे जाएं तो, सारे खेत में इस रोग की व्यवस्था करनी चाहिए।
उकठा रोग का नियंत्रण उचित समय पर न किया गया तो प्रति एकड़ पौधों की संख्या तेज़ी से घटने की सम्भावना है और अपेक्षित उपज प्राप्त करना मुश्किल है । उकठा रोग का नियंत्रण करने के लिये बीज रोपण के समय बीज उपचार किया जाना चाहिए। खेत में सभी खरपतवार फावड़े की सहायता से अथवा श्रमिकों से उखाड़े जाने चाहिए। जिससे मिट्टी भुरभुरी होगी और सफ़ेद जड़ों का विकास होगा।
बारिश कम हो तब, कवकनाशी मिश्रण ट्राइकोडर्मा + स्यूडोमोनास को मिलाकर प्रति किग्रा/प्रति एकड़ देना चाहिए। इसका उपयोग करते समय, मिट्टी में नमी होना जरूरी है। इसका अच्छी तरह से उपयोग करने के लिए गोबर खाद या कृमि खाद में मिलाकर इस मिश्रण को अरहर के पौधों के पास की तरह समान रूप से फैलाएँ।
बारिश कम होते ही मिट्टी में कवकनाशी का उपयोग करें। कॉपर-ऑक्सि-क्लोराइड 1 किलो /एकड़ या साफ 500 ग्राम/एकड़ या रिडोमिल 500 ग्राम/एकड़ उर्वरकों के साथ या पम्प में भिगोकर देना चाहिए|
उकठा रोग की शुरुआत में पत्तियां अचानक पीली होने लगती हैं। पौधे सूख कर गिरने लग जाते हैं। तनों के आधा भाग व जड़ पर काली धारियां दिखाई पड़ने लगती है। कृषि जानकारों के अनुसार यह एक फफूंद जन्य रोग है। जो फ्यूसेरियम आक्सीस्पोरियम नामक फफूंद से होता है। इस फफूंद के माइसीलियम से उत्पन्न होने वाले तीन प्रकार के स्पोर में से एक क्लेमाइडोस्पोर भूमि में लंबे समय तक क्रियाशील रहने योग्य होते हैं। 17 से 20 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान व जानवरों के गोबर में रोग का विकास होता है। कटाई के बाद खेत में पड़े पौधों के अवशेष छोड़ दिए जाते हैं और यह लंबी अवधि तक रोगजनन योग्य रहता हैं। प्राथमिक इन्फेक्शन महीन जड़ों में कोनिडियोस्पोर के प्रवेश से होता है।
उकठा रोग से प्रभावित रहने वाले खेतों में चार से पांच वर्ष के अंतराल पर ही अरहर की बुवाई करें। प्रभावित पौधों को जला दें व ऐसे खेतों की गर्मियों में गहरी जोताई करें। अरहर की ज्वार के साथ मिश्रित खेती करें। हरी खाद के प्रयोग से बैसिलस सबटाईलिस, राइजोपस जैसे सूक्ष्मजीव की संख्या बढ़ती है जो उकठा रोग की रोकथाम में सहायक हैं।