पंजाब सरकार ने किसानों के हित में एक बड़ा फैसला किया है| अब सरकार धान और गेहूं की तरह मूंग की फसल भी एमएसपी पर खरीदेगी| सरकार ने कहा है कि किसान मूंग के बाद धान की 126 और बासमती की फसल लगा सकते हैं| गेहूं और धान के बीच में एक और फसल एमएसपी पर खरीदने की पहल की गई है|
मुख्यमंत्री भगवंत मान ने इस फैसले का एलान करते हुए कहा है कि किसान फसल विविधीकरण की ओर ध्यान दें. सरकार हमेशा किसानों के साथ है| केंद्र सरकार ने मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 7275 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया हुआ है|
पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कहा कि मूंग की फसल 55 दिन के अंदर तैयार हो जाती है। उन्होंने कहा कि हमारे पास समय है अगर हम 15 मई को मूंग की फसल लगाते हैं तो यह 10 जुलाई तक तैयार हो जाएगी, जिसके बाद किसान धान और बासमती की फसल भी तैयार कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने मूंग की फसल पर एमएसपी का ऐलान किया है।
श्री मान ने बयान जारी कर कहा, ”मूंग की फसल 55 दिन के अंदर तैयार हो जाती है| हमारे पास टाइम है| अगर 15 मई तक मूंग की फसल तैयार हो जाएगी और 10 जुलाई तक वो तैयार हो जाएगी| उसके बाद किसान धान की 126 और बासमती की फसल उगा सकता है|”
दालों पर नीति आयोग की ओर से फरवरी, 2018 में तैयार वर्किंग ग्रुप रिपोर्ट के मुताबिक, दालों में खरीफ दाल (प्रमुख अरहर, उड़द, मूंग) के क्षेत्र में 1980 में विकास दर 8 फीसदी थी जो 1990 तक -8 फीसदी हो गई। वहीं, 2000 के दशक तक यह स्थिर ही रही। जबकि उत्पादन के मामले में 1980 में विकास दर 8.7 फीसदी थी जो 1990 में घटकर -6.6 फीसदी हो गई। इसके बाद किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पैदावार की दर बढ़ने के कारण वर्ष 2000 तक उत्पादन में कुछ बढ़ोतरी हुई। रबी फसलों में भी इसी तरह का अनुभव रहा। 1980 में 5.5 फीसदी की विकास दर 1990 तक घटकर -3.2 फीसदी हो गई। स्कीम ऑफ ऑयलसीड, पल्सेस, ऑयल पॉम एंड मेज (आईएसोपीओएम) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) जैसे कार्यक्रमों के कारण रबी दलहनों के क्षेत्र और उपज बढ़ने से 4.2 फीसदी का विकास हुआ। हालांकि, दलहनी फसलों के मुकाबले तिलहन व व्यवसायिक फसलों (कॉटन, बीटी कॉटन, गन्ना, सोयाबीन) का इस अवधि में विकास अच्छा रहा।
दलहन के इतिहास में 2017-18 ऐसा वर्ष है जब सर्वाधिक 254.1 लाख (25.41 मिलियन) टन दालों का उत्पादन हुआ था और अब 2020-21 में भी तृतीय अग्रिम अनुमान के मुताबिक, यह 255.7 लाख टन (25.5 मिलियन) रिकॉर्ड उत्पादन हो सकता है। लेकिन यहां ध्यान देने लायक है कि कुल आंकड़ों में यह बढ़त रबी सीजन में चना की वजह से दिखाई देती है। यदि दलहनों में दूसरी सबसे ज्यादा हिस्सेदारी करने वाली अरहर के उत्पादन की स्थिति देखें तो उसमें बढ़त की जगह गिरावट दर्ज की गई है। 2017-18 रिकॉर्ड उत्पादन वर्ष में 113.8 लाख टन की हिस्सेदारी चना की थी जबकि 42.9 लाख टन उत्पादन अरहर का था। यदि 2020-21 के तीसरे अग्रिम अनुमान को देखें तो चना की हिस्सेदारी 126.1 लाख टन है, जो 2017-18 से ज्यादा है। वहीं, अरहर की हिस्सेदारी 41.4 लाख टन ही है, जो 2017-18 के मुकाबले कम है।
जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ने वाली चरम घटनाएं और अत्यधिक वर्षा कृषि के फसल चक्र को प्रभावित कर रही है। यही कारण है कि दालों के क्षेत्र, उत्पादन और उपज के इस लंबी दशकीय संघर्ष की दुखांत कहानी अभी रुकी नहीं है।
केंद्रीय कृषि मंत्रालय की ओर से 16 जुलाई, 2021 को जारी किए गए ताजा आंकड़े खरीफ सीजन में बीते छह वर्षों के बुवाई की स्थिति स्पष्ट करते हैं कि खरीफ सीजन में छह प्रमुख दलहन राज्यों (मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान) में बुआई 12-14 जुलाई, 2021 तक सामान्य रकबे से कम ही रह गई है। 12-14 जुलाई तक खरीफ सीजन का सामान्य रकबा 135.294 लाख हेक्टेयर क्षेत्र है। वर्ष 2017-18 में खरीफ सीजन मे रिकॉर्ड बवाई 100.044 लाख हेक्टेयर हुई थी, जिसका परिणाम रिकॉर्ड उत्पादन के रूप में हुआ था। 2021-22 में खरीफ सीजन में बुवाई 70.643 लाख हेक्टेयर ही रह गई है। सभी प्रमुख दाल उत्पादक छह राज्यों में बुवाई में बीते वर्षों के मुकाबले गिरावट आई है। सबसे ज्यादा कमी राजस्थान में रही जहां वर्ष 2017 में इस अवधि तक 27.228 लाख हेक्टेयर बुवाई थी, वहीं इस वर्ष महज 9.198 लाख हेक्टेयर ही बुवाई हो सकी है।
खरीफ बुवाई में कमी एक बार फिर से उत्पादन आंकड़ों को नुकसान पहुंचा सकती है और प्रमुख दाल तुअर और उड़द, मूंग का उत्पादन और कम कर सकती है। यह न सिर्फ आयात बल्कि कीमतों के लिए भी निराशाजनक सबित होता है। इन दलहनों के उत्पादन की कमी सीधा कीमतों में उछाल और आयात निर्भरता और कानूनी फेरबदल के तौर पर दिखाई देती है।
सरकार दाल की कीमतों पर नियंत्रण रखने के नाम पर लगातार यही रास्ता अपनाती रही है। वर्ष 2015 से लेकर अब तक बीते पांच वर्षों में सरकार ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने के नाम पर आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के विरुद्ध जाकर दाल के भंडारण के लिए दो बार सीमा तय की है। 2 जुलाई, 2021 को जारी अधिसूचना का इस बार थोक विक्रेताओं, खुदरा विक्रेताओं, मिल मालिकों और आयातकों ने खूब विरोध किया। इसके चलते सरकार को दोबारा विचार करना पड़ा और भंडारण सीमा को फिर से बढ़ाना पड़ा है। कन्फेडेरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स एसोसिएशन के रमणीक छेड़ा ने डाउन टू अर्थ से कहा कि 200 मीट्रिक टन की भंडारण सीमा 1955 में लगाई गई थी, जब जनसंख्या महज 25 करोड़ थी। इस वक्त 2,000 मीट्रिक टन की सीमा होनी चाहिए।
हालांकि, सरकार ने विशिष्ट खाद्य पदार्थों पर लाइसेंसी अपेक्षाएं, स्टॉक सीमाएं और संचलन प्रतिबंध हटाना (संशोधन) आदेश, 2021 को संशोधित करते हुए 19 जुलाई को कहा है कि अब सभी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के लिए तुअर, उड़द सहित सभी दालों के लिए 31 अक्टूबर 2021 तक के लिए स्टॉक सीमा निर्धारित की गई है। इसके तहत थोक विक्रेताओं के लिए ये स्टॉक सीमा 200 मीट्रिक टन के बजाए अब 500 मीट्रिक टन (बशर्ते एक किस्म की दाल 100 मीट्रिक टन के बजाए अब 200 मीट्रिक टन से ज्यादा नहीं होनी चाहिए)। खुदरा विक्रेताओं के लिए 5 मीट्रिक टन और मिल मालिकों के लिए ये सीमा उत्पादन के अंतिम 3 महीनों के बजाए अब 6 महीनों या वार्षिक स्थापित क्षमता का 25 प्रतिशत के बजाए अब 50 फीसदी, जो भी ज्यादा हो, वो होगी। नए बदलाव में आयातकों को इस भंडारण सीमा से बाहर कर दिया है। इसका आशय है कि सरकार अभी दलहन आयात को लेकर उदार भी बने रहना चाहती है। हर वर्ष दलहन की मांग और आपूर्ति का अनुपात ठीक करने के लिए करीब 30 लाख टन तक दालों को आयात करना पड़ता है।
आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 1955 से अलग जाकर किए गए इस आदेशों पर ऑल इंडिया दाल मिल एसोसिएशन ने कहा कि खाद्य महंगाई दलहन में नहीं चल रही है। किसानों को अरहर और उड़द में तय न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दाम मिल रहे हैं। ऐसे में सरकार के द्वारा दालों की भंडारण की सीमा को लेकर उठाया गया कदम उन्हें हतोत्साहित करेगा। तीन कृषि कानूनों के साथ भंडारण सीमा की शक्ति के लिए केंद्र सरकार ने आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 1955 में बदलाव किया था जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्षों के लिए रोक दिया है। इसके बाद सरकार ऐसे आदेशों का सहारा ले रही है।
किसान संगठन से जुड़े किरण कुमार विस्सा बताते हैं कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में किया गया संशोधन केंद्र सरकार को यह शक्ति देता है कि वह आवश्यक वस्तुओं पर तत्काल प्रभाव से भंडारण सीमा (स्टॉक लिमिट) को तय कर सके। दरअसल यह शक्ति कृषि व्यवसाय से जुड़े कारोबारियों को फायदा दिलाने के लिए है। इसमें किसानों की आय को कोई फायदा नहीं होने वाला। उनका कहना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में बदलाव नाजायज है। इसी कानून की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के समय में खाद्यान्न महंगाई ठहरी रही थी।
सरकार यह बात अच्छी तरह जानती है लेकिन लगता है कि भंडारण सीमा को लेकर उसकी मंशा कारोबारी हितों की है। दाल भंडारण सीमा को लेकर अचानक जारी होने वाली इस अधिसूचना से पहले वर्ष 2020 में सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के संशोधन में कहा था कि आवश्यक वस्तु अधिनियम या स्टॉक सीमा तभी लागू होगी जब दालों की कीमत या तो एमएसपी से 50 फीसदी अधिक होंगी या देश में कोई आपातकालीन स्थिति होगी। ऐसी कोई स्थिति नहीं होने के बावजूद सरकार ने भंडारण सीमा का इस्तेमाल किया।
थोक महंगाई के मामले में यह देखा गया है कि त्योहारों के मौकों पर मांग अत्यधिक बढ़ जाती है। ऐसे में एक कृत्रिम मंहगाई पैदा होती है। हालांकि खुदरा महंगाई ग्रामीण और मध्यम वर्गीय उपभोक्ताओं को ज्यादा परेशान करती है। जून, 2016 में तुअर 170 रुपए किलो और 196 रुपए किलो उड़द बेची गई थी। इस वर्ष 2021 में तुअर की खुदरा कीमतें 100 रुपए तक पहुंची हैं। जबकि चना मूंग और उड़द की कीमतें 80 रुपए से अधिक हैं। 2020-21 में रिटेल कीमतों को स्थिर रखने के लिए सरकार ने दालों के बफर का इस्तेमाल किया। मसलन मूंग, उड़द, तुअर राज्यों को छूट के साथ दिया गया। आपूर्ति का खर्च विभागों पर छोड़ा गया है। ऐसे में 2.3 लाख टन दालों को रिटेल हस्तक्षेप के तौर पर ओपन मार्केट बिक्री के तहत जारी किया गया है।
सरकार का कहना है कि इस वर्ष एक अप्रैल से 16 जून तक कीमतों में स्थिरता आई है। हालांकि संकट का विषय यह है कि इससे किसानों को बड़ा झटका लग रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) के जरिए एमएसपी पर जो भी दलहन की खरीद होती है, उसी स्टॉक को ओपन मार्केट में कम कीमत में दे दिया जाता है। इससे भाव नीचे आते हैं और अन्य दलहन किसानों को बाजार में दाल की बिक्री के लिए अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है।
इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के वरिष्ठ सलाहकार संदीप दास के मुताबिक, “दलहनों की बड़ी खरीद करने वाली नेफेड ने 2014-2015 से 2019-20 तक 38 लाख किसानों से 76.3 लाख टन दाल खरीदी है और बफर स्टॉक को ओपन मार्केट सेल स्कीम के तहत घाटे पर बेचा है। यह न सिर्फ बाजार में कीमतों को प्रभावित करता है बल्कि प्राइवेट उद्यमों को सीधा किसानों से दलहन खरीदने की प्रक्रिया को हतोत्साहित भी करता है।”