भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान,क्षेत्रीय केंद्र इंदौर द्वारा गेहूं की दो नई किस्में पूसा वानी (एच.आई .1633 ) और पूसा अहिल्या (एच.आई.1634 ) विकसित की गई है , जो चपाती के लिए उपयुक्त है। इन किस्मों के विकास में डॉ. एस.वी. साई प्रसाद और वैज्ञानिक जंग बहादुर सिंह का योगदान रहा है।
इन दोनों नई किस्मों के बारे में बताया गया है कि इन दोनों प्रजातियों को अगस्त में आयोजित अखिल भारतीय गेहूं एवं जौ शोध कार्यशाला में चिन्हित किया गया है। इन दोनों प्रजातियों की विशेषताएं इस प्रकार हैं –
पूसा अहिल्या (एच.आई .1634 ) : इस प्रजाति को मध्य भारत के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र मध्य प्रदेश., छततसगढ.ती, गुजरात ,झाँसी एवं उदयपुर डिवीजन के लिए देर से बुवाई सिंचित अवस्था में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए चिन्हित किया गया है। पूसा अहिल्या की औसत उत्पादन क्षमता 51.6 क्विंटल /हेक्टेयर और अधिकतम उत्पादन क्षमता 70.6 क्विंटल/हेक्टेयर है। यह प्रजाति काले /भूरे रतुआ रोग अवरोधी होने के साथ ही इसमें करनाल बंट रोग की प्रतिरोधक क्षमता भी है। इसका दाना बड़ा, कठोर , चमकदार और प्रोटीनयुक्त है.चपाती भी गुणवत्ता से परिपूर्ण है।
पूसा वानी (एच.आई .1633 ) : इसे प्रायद्वीपी क्षेत्र (महाराष्ट्र और कर्नाटक) में देर से बुवाई और सिंचित अवस्था में उत्पादन हेतु चिन्हित किया गया है। पूसा वानी की औसत उत्पादन क्षमता 41.7 क्विंटल /हेक्टेयर और अधिकतम उत्पादन क्षमता 65 .8 क्विंटल /हेक्टेयर है। यह किस्म प्रचलित एच.डी.2992 से 6 .4 % अधिक उपज देती है। यह प्रजाति काले और भूरे रतुआ रोग से पूर्ण अवरोधी और है और कीटों का प्रकोप भी नगण्य है।
इस किस्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उच्च तापमान होने पर भी यह किस्म जल्दी नहीं पकती है, जिससे इसका उत्पादन कम नहीं होता है। फरवरी / मार्च में तापमान बढ़ने पर अन्य पुरानी किस्मों में जो 20 प्रतिशत तक की क्षति उत्पादन में होती है वह इस किस्म की बढ़े तापमान को सहन करने की क्षमता के कारण इसमें नहीं होती है।
पूसा अहिल्या एक अर्ली किस्म अवधि 105 से 110 दिवस होने से इस किस्म को देरी बोनी हेतु दिसम्बर के अंत तक बोने के लिये भी एक सर्वश्रेष्ठ किस्म के रूप में अनुशंसित किया गया है। जिसके कारण आलू-मटर व अन्य अगाती फसल लेने वाले किसानों के लिये यह किस्म वरदान सिद्ध होगी।