बिहार में फिर सियासी मौसम बदलने की सुगबुगाहट है। टूटना और फिर जुड़ना इस सूबे की कुंडली में है। सियासत की दुनिया में समाजवादी दोहराते हैं -जिंदा कौमें पांच साल इन्तजार नहीं करती है। वैसे राहुल गांधी की यात्रा अभी बिहार में पहुंची ही नहीं है।
बिहार की सियासत में फिलहाल जिस बदलाव की पटकथा तैयार हो चुकी है, वह बिहार की राजनीति को ही चौंका गई है। असमंजस भरी राजनीति को इस बात से समझा जा सकता है कि कर्पूरी ठाकुर की जयंती से एक दिन पहले उन्हें ‘भारत रत्न’ की घोषणा हुई। बीजेपी का प्रदेश नेतृत्व ‘किसी को कंधे पर बिठाकर’ रजनीति करने को सीधे ना कह रहा था। बीजेपी के फायर ब्रांड नेता गिरिराज सिंह भी नीतीश कुमार के लिए नो एंट्री का बोर्ड लगा रखा था। तो आखिर सवाल यह उठता है कि अमित शाह ने बीजेपी के दरवाजे नीतीश कुमार के लिए बंद किए थे तो आखिर वो किस चाभी से खुल गए।
दरअसल जिस प्रतिक्रिया स्वरूप I.N.D.I.A. गठबंधन की नींव राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रखी, वह प्रारंभ में बीजेपी को नेतृत्व पर दवाब नहीं बना पाई। वजह यह थी कि तब कई राज्यों के कांग्रेस विरोधी दल इस प्लेटफार्म पर नहीं आए थे। इसके चलते बीजेपी की अधिकांश राज्यों में सीधी फाइट की गुंजाइश कम थी। लेकिन, जब नीतीश कुमार के प्रयास से ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव तक I.N.D.I.A. गठबंधन पर ‘सवार’ हो गए तो नरेंद्र मोदी के रणनीतिकारों को I.N.D.I.A. गठबंधन के शिल्पकार और राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले नीतीश कुमार बहुत बड़ी चुनौती के रूप में उभरे। हालांकि I.N.D.I.A. गठबंधन के शिल्पकार को गठबंधन से खास तवज्जो नहीं मिली। लेकिन बीजेपी को I.N.D.I.A. गठबंधन को छिन्न-भिन्न करने के लिए ‘मिशन नीतीश’ पर लगना पड़ा।
एनडीए गठबंधन से जदयू के अलग होने के बाद बीजेपी प्रदेश नेतृत्व अपने तमाम गठबंधन दल के साथ केंद्रीय नेतृत्व को यह भरोसा नहीं दिला पाया कि 2024 का प्रदर्शन 2019 लोकसभा चुनाव के परिणाम जैसा होगा। राजद के 30 प्रतिशत वोट बैंक के साथ अन्य पिछड़ा और दलित का एक हद तक मिलने वाले वोट का नुकसान का डर सताने लगा। जातीय सर्वे और आरक्षण के बढ़े प्रतिशत के कारण पिछड़ा और अतिपिछड़ा वोट बैंक पर महागठबंधन का रंग चढ़ जाना भी बीजेपी की परेशानी का कारण बना। बीजेपी को नुकसान होता साफ दिखाई देने लगा।
बिहार के संदर्भ में यह देखा गया तो नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के साथ रहने से अतिपिछड़ा वोट एनडीए को 80 से 85 प्रतिशत मिल जाता है। लेकिन वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के राजद के साथ जाने पर महागठबंधन को 60 फीसदी और एनडीए को 40 प्रतिशत वोट हासिल हो पाया था। यह डर भी बीजेपी नेतृत्व को सता रहा था।
बिहार के संदर्भ में यह देखा गया तो नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के साथ रहने से अतिपिछड़ा वोट एनडीए को 80 से 85 प्रतिशत मिल जाता है। लेकिन वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश के राजद के साथ जाने पर महागठबंधन को 60 फीसदी और एनडीए को 40 प्रतिशत वोट हासिल हो पाया था। यह डर भी बीजेपी नेतृत्व को सता रहा था।
सियासी हल्कों में यह बड़ा सवाल है कि बिहार में हवा बदलने का असर ग़ैर भाजपाई दलों पर क्या होगा ? सियासत में बदलाव इतिहास लिखता है।