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पराली से उपयोगी उत्पाद बनाने व खेती के लिए आगे आये नौजवान

धान की पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए कई उपाय किये जा रहे हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली के इन्क्यूबेशन सेंटर से जुड़े एक स्टार्टअप ने अब फसल अपशिष्टों से ईको-फ्रेंडली कप और प्लेट जैसे उत्पाद बनाने की पद्धति विकसित की है।

अपनी नयी विकसित प्रक्रिया का उपयोग करके तीन छात्रों ने धान के पुआल को कप और प्लेट के निर्माण के लिए एक इकाई स्थापित की है, जो आमतौर पर प्रचलित प्लास्टिक प्लेटों का विकल्प बन सकती है। धान के पुआल में 10 प्रतिशत तक सिलिका होती है, जिसकी वजह से अधिकतर औद्योगिक प्रक्रियाओं में इसका उपयोग करना मुश्किल होता है। शोधकर्ताओं ने एक विलायक-आधारित प्रक्रिया विकसित की है, जिसकी मदद से सिलिका कणों के बावजूद फसल अवशेषों को औद्योगिक उपयोग के अनुकूल बनाया जा सकता है।

क्रिया लैब्स नामक स्टार्टअप के मुख्य संचालन अधिकारी अंकुर कुमार ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “इस तकनीक की मदद से किसी भी कृषि अपशिष्ट या लिग्नोसेल्यूलोसिक द्रव्यमान को होलोसेल्यूलोस फाइबर या लुगदी और लिग्निन में परिवर्तित कर सकते हैं। लिग्निन को सीमेंट और सिरेमिक उद्योगों में बाइंडर के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। फिलहाल, हम धान के पुआल से बनी लुगदी से टेबलवेयर बना रहे हैं।”

हर साल सर्दियों की शुरुआत में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में लाखों टन पराली जला दी जाती है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार, इस मौसम में अब तक पराली जलाने की पंजाब में 700 और हरियाणा में 900 से अधिक घटनाओं का पता चला है। नासा के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक देश के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में फसल अवशेष जलाने के कारण धुएं और धुंध का गुबार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और ओडिशा तक फैल रहा है।

इस पहल की शुरुआत आईआईटी-दिल्ली के छात्र अंकुर कुमार, कनिका प्रजापत और प्रचीर दत्ता ने मई 2014 में ग्रीष्मकालीन परियोजना के रूप में शुरू की थी, जब वे बीटेक कर रहे थे। उनका विचार था कि फसल अपशिष्टों से जैविक रूप से अपघटित होने योग्य बर्तन बनाने की तकनीक विकसित हो जाए तो प्लास्टिक से बने प्लेट तथा कपों का इस्तेमाल कम किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने एक प्रक्रिया और उससे संबंधित मशीन विकसित की और पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया। अंकुर कुमार ने बताया कि “जल्दी ही हमें यह एहसास हो गया कि मुख्य समस्या कृषि कचरे से लुगदी बनाने की है, न कि लुगदी को टेबलवेयर में परिवर्तित करना।”

पंजाब के किसान रमनदीप सिंह व गुरबिंदर सिंह हनी पिछले दो वर्षों से आलू की खेती में धान की पराली का उपयोग खाद के तौर पर कर रहे हैं| पिछले तीन वर्षों से पराली को नहीं जलाई है और दो वर्षों से आलू की खेती कर रहे हैं| किसान बताते हैं कि उन्होंने सीधी बिजाई के लिए केवीके खेड़ी से हैपीसीडर चलाने की ट्रेनिंग ली है| किसान की मानें तो पहले पराली को जमीन में ही खुर्दबुर्द करके गेहूं की बिजाई कर रहे थे और अच्छी पैदावार मिलने के बाद इसे आलू की खेती में अपना रहे हैं| पराली को मिट्टी में मल्चर, पलटावे हेल, रोटावेटर इत्यादि की मदद से मिट्टी में मिला दिया जाता है और फीर इसमें आलू के बीजों की बिजाई की जाती है|

किसान बताते हैं कि मिट्टी में पराली को मिलाने के बाद यह आलू में फसल का काम करती है| आलू की सही विकास के लिए मिट्टी अधिक कठोर होनी चाहिए ताकी पराली आलू के लिए मददगार बन सके|

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