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सिर्फ आसमान मुजरिम क्‍यों हो !

व्‍योमेश चन्‍द्र जुगरान

हमारे देश में मॉनसून के पैटर्न में हर बार बदलाव देखने को मिल रहे है। यह स्‍वाभाविक भी है। इतने विशाल देश में एक ही समय में अतिवृष्टि और सूखे की लीला नई बात नहीं है। इस बार पूर्वी भारत के अनेक जिलों में औसत से कम वर्षा रिकार्ड की गई। मौसम विभाग की माने तो 1 जून से 15 अगस्‍त तक भारत भर में पांच फीसद कम बारिश हुई। आलम यह है कि दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून से देश का पश्चिमी भू-भाग तो तरबतर है, पर पूरब और दक्षिण में बारिश की स्थिति कमजोर है। यही नहीं,अगस्त के पहले पखवाड़े में बरसा पानी जून-जुलाई में हुई कुल बारिश से पांच गुना ज्‍यादा आंका गया। हिमाचल और उत्तराखंड में हुई तबाही इसी अतिवृष्टि का परिणाम है।

उत्तराखंड में बीते 13-14 अगस्त को मात्र 24 घंटे के भीतर 52.9 मिमी पानी बरसा जबकि इस मौसम में यहां आमतौर पर कुल 14.2 मिमी बारिश हुआ करती है। इसी तरह हिमाचल के मामले में यह आंकड़ा 50.3 मिमी है जो कि सामान्‍य से पांच गुना अधिक है। हिमाचल और उत्तराखंड में अतिवृष्टि से जानमाल का भारी नुकसान हुआ है। उत्तराखंड में 15 जून से प्रारंभ मॉनसून की बारिश और अतिवृष्टि से अब तक 78 लोगों की मौत हुई है और 18 लोग लापता है। चार दर्जन से अधिक लोग घायल हुए हैं। करीब 500 मवेशी, पॉल्‍टी फार्म और घरों को भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। हिमाचल में मौतों का आंकड़ा 500 को पार कर चुका है। 55 दिनों में यहां भूस्‍खलनों के 113 घटनाएं हुई हैं और दो हजार से अधिक सड़कें अवरुद्ध हैं। सरकारी आकलन के मुताबिक लगभग दस हजार करोड़ की संपत्ति को नुकसान पहुंचा है। तबाही को देखते हुए हिमाचल सरकार ने इसे ‘स्‍टेट डिजास्‍टर’ घोषित किया है। वर्ल्‍ड हैरिटेज कहे जाने वाली कालका-शिमला रेलखंड को भी भारी तबाही का सामना करना पड़ा है।

इधर उत्तराखंड में ऋषिकेश-बदरीनाथ हाईवे का एक बड़ा हिस्‍सा तोताघाटी के निकट बिल्‍कुल साफ हो गया। चमोली जिले में भी कई स्‍थानों पर यात्रा मार्ग अवरुद्ध हो गई। दिल्‍ली-कोटद्वार-पौड़ी राजमार्ग दुगड्डा के पास और दिल्‍ली-देहरादून राजमार्ग डाटकाली मंदिर के निकट क्षतिग्रस्‍त है। चारधाम यात्रा के स्‍थगन से पिछले पिछले हफ्ते विभिन्‍न स्‍थानों पर डेढ़ हजार से अधिक तीर्थयात्री फंसे हुए थे।

हिमाचल और उत्तराखंड में हुई अतिवृष्टि को मॉनसून के परिवर्तकारी पैटर्न का परिणाम माने तो स्थिति असामान्‍य जरूर है मगर, क्‍या सिर्फ आसमान को ही दोष दिया जाए ! क्‍या कुदरती संसाधनों पर बढ़ते मानवीय हस्‍तक्षेपों का इससे कोई लेनादेना नहीं ! यह सबक तो लेना ही होगा कि प्राकृतिक आपदाएं रोकना मुश्किल है, पर उनकी मारक क्षमता को रोकना संभव है। अफसोस कि क्षति के लिए हमारे निशाने पर सिर्फ आसमान है, जमीन पर पसरी मानवीय भूलें नहीं ! आखिर क्‍यों पहाड़ों पर अराजक निर्माण और प्राकृतिक असंतुलन की अनदेखी के खतरे हमें बार-बार आगाह कर रहे हैं ! जून 2013 में केदारनाथ की विनाशलीला के बाद यदि हमने सबक सीखा होता तो शायद आठ साल बाद फरवरी 2021 में रैणी घाटी फिर से न कांपी होती। आपदाएं हमें इस बात का भी अवसर दे रही है कि हिमालय की हिफाजत से संबंधित सिफारिशों, निर्णयों और नीतियों की फाइलों पर कसे फीते ढीले किए जाएं और हिमालय के अवैध शोषण और लूट-खसोट के खिलाफ सख्ती का माहौल बनाया जाए।

हालांकि सारा दोष सरकारों पर नहीं मढ़ा जा सकता। जोशीमठ में भू-धंसाव के मद्देनजर राज्‍य सरकार ने बदरीनाथ यात्रियों को सीमित संख्‍या में आगे भेजने की बात की थी, मगर स्‍थानीय कारोबारी और पंडे-पुजारी विरोध में उतर आए। दिसंबर-जनवरी माह में जोशीमठ के धंसने की खबरों से पूरे देश में हड़कंप मच गया था। मगर यात्रा सीजन शुरू होते ही खामोशी छा गई। जाहिर है, यात्रा सीजन की कमाई से समझौता करने को कोई तैयार नहीं है, भले ही इलाके की भूगर्मीय स्थिति कितनी भी विकट क्‍यों न हो। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि बड़े निर्माणों के कारण पहाड़ी नदियों के जलागम क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं और नदी, नाले, घाटियां डंपिंग जोन बनते जा रहे हैं। बड़ी-छोटी और बरसाती नदियों के मुहाने तो कब के गुम होकर बड़े-बड़े अतिक्रमणों में बदल गए है। देहरादून के निकट मालदेवता में डिफेंस ट्रेनिंग इंस्‍टीट्यूट की जो इमारत रविवार को ताश के पत्तो की तरह ढही, वह सोंग नदी के कैचमेंट पर खड़ी थी। गनीमत रही कि यहां कोचिंग ले रहे 85 बच्‍चों को यहां से पहले ही हटा दिया गया था।

पहाड़ों में बारिशें पहले भी हुआ करती थीं और कई दिनों तक अनवरत चला करती थीं। सावन के महीने सूरज के दर्शन मुश्किल हो पाते थे लेकिन बच्‍चे हंसी-खुशी स्‍कूल कॉलेज जाते थे। तब दूर-दराज के इलाकों में कच्‍ची सड़कों का अवरुद्ध होना सामान्‍य बात थी लेकिन चूंकि इनके आसपास मानवीय हस्‍तक्षेप/अतिक्रमण का ऐसा दस्‍तूर नहीं था, सो नुकसान नहीं होता था। तब नीतियों में तीर्थाटन को पर्यटन मानने की जिद शामिल नहीं थी और सरकारें इन संवेदनशील तीर्थस्‍थलों पर उमड़ रही भक्‍तों की भीड़ को पर्यटन क्रांति से जोड़कर देखने को लालायित नहीं थीं।

मौसमी तबदीली को आज ग्‍लोबल वार्मिंग के दुष्‍प्रभावों से जोड़कर भी देखा जा रहा है। हालांकि मॉनसून पर इसका कितना तीव्र प्रभाव है, कहना कठिन है। पर यदि ऐसा है तो निश्चित ही आने वाले साल मुश्किल भरे होंगे। इस दिशा में और गहन शोधों व अध्‍ययनों की जरूरत है। बढ़ती आबादी के बीच हमें मॉनसून के पानी को अधिकाधिक उपयोगी बनाने के लिए ठोस संसाधन जुटाने होंगे। मौसमी पूर्वानुमान से जुड़ी तकनीकों को बढ़ावा देना होगा।

हमारे देश में मॉनसून के पैटर्न में हर बार बदलाव देखने को मिल रहे है। यह स्‍वाभाविक भी है। इतने विशाल देश में एक ही समय में अतिवृष्टि और सूखे की लीला नई बात नहीं है। इस बार पूर्वी भारत के अनेक जिलों में औसत से कम वर्षा रिकार्ड की गई। मौसम विभाग की माने तो 1 जून से 15 अगस्‍त तक भारत भर में पांच फीसद कम बारिश हुई। आलम यह है कि दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून से देश का पश्चिमी भू-भाग तो तरबतर है, पर पूरब और दक्षिण में बारिश की स्थिति कमजोर है। यही नहीं,अगस्त के पहले पखवाड़े में बरसा पानी जून-जुलाई में हुई कुल बारिश से पांच गुना ज्‍यादा आंका गया। हिमाचल और उत्तराखंड में हुई तबाही इसी अतिवृष्टि का परिणाम है।

उत्तराखंड में बीते 13-14 अगस्त को मात्र 24 घंटे के भीतर 52.9 मिमी पानी बरसा जबकि इस मौसम में यहां आमतौर पर कुल 14.2 मिमी बारिश हुआ करती है। इसी तरह हिमाचल के मामले में यह आंकड़ा 50.3 मिमी है जो कि सामान्‍य से पांच गुना अधिक है। हिमाचल और उत्तराखंड में अतिवृष्टि से जानमाल का भारी नुकसान हुआ है। उत्तराखंड में 15 जून से प्रारंभ मॉनसून की बारिश और अतिवृष्टि से अब तक 78 लोगों की मौत हुई है और 18 लोग लापता है। चार दर्जन से अधिक लोग घायल हुए हैं। करीब 500 मवेशी, पॉल्‍टी फार्म और घरों को भी बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। हिमाचल में मौतों का आंकड़ा 500 को पार कर चुका है। 55 दिनों में यहां भूस्‍खलनों के 113 घटनाएं हुई हैं और दो हजार से अधिक सड़कें अवरुद्ध हैं। सरकारी आकलन के मुताबिक लगभग दस हजार करोड़ की संपत्ति को नुकसान पहुंचा है। तबाही को देखते हुए हिमाचल सरकार ने इसे ‘स्‍टेट डिजास्‍टर’ घोषित किया है। वर्ल्‍ड हैरिटेज कहे जाने वाली कालका-शिमला रेलखंड को भी भारी तबाही का सामना करना पड़ा है।

इधर उत्तराखंड में ऋषिकेश-बदरीनाथ हाईवे का एक बड़ा हिस्‍सा तोताघाटी के निकट बिल्‍कुल साफ हो गया। चमोली जिले में भी कई स्‍थानों पर यात्रा मार्ग अवरुद्ध हो गई। दिल्‍ली-कोटद्वार-पौड़ी राजमार्ग दुगड्डा के पास और दिल्‍ली-देहरादून राजमार्ग डाटकाली मंदिर के निकट क्षतिग्रस्‍त है। चारधाम यात्रा के स्‍थगन से पिछले पिछले हफ्ते विभिन्‍न स्‍थानों पर डेढ़ हजार से अधिक तीर्थयात्री फंसे हुए थे।

हिमाचल और उत्तराखंड में हुई अतिवृष्टि को मॉनसून के परिवर्तकारी पैटर्न का परिणाम माने तो स्थिति असामान्‍य जरूर है मगर, क्‍या सिर्फ आसमान को ही दोष दिया जाए ! क्‍या कुदरती संसाधनों पर बढ़ते मानवीय हस्‍तक्षेपों का इससे कोई लेनादेना नहीं ! यह सबक तो लेना ही होगा कि प्राकृतिक आपदाएं रोकना मुश्किल है, पर उनकी मारक क्षमता को रोकना संभव है। अफसोस कि क्षति के लिए हमारे निशाने पर सिर्फ आसमान है, जमीन पर पसरी मानवीय भूलें नहीं ! आखिर क्‍यों पहाड़ों पर अराजक निर्माण और प्राकृतिक असंतुलन की अनदेखी के खतरे हमें बार-बार आगाह कर रहे हैं ! जून 2013 में केदारनाथ की विनाशलीला के बाद यदि हमने सबक सीखा होता तो शायद आठ साल बाद फरवरी 2021 में रैणी घाटी फिर से न कांपी होती। आपदाएं हमें इस बात का भी अवसर दे रही है कि हिमालय की हिफाजत से संबंधित सिफारिशों, निर्णयों और नीतियों की फाइलों पर कसे फीते ढीले किए जाएं और हिमालय के अवैध शोषण और लूट-खसोट के खिलाफ सख्ती का माहौल बनाया जाए।

हालांकि सारा दोष सरकारों पर नहीं मढ़ा जा सकता। जोशीमठ में भू-धंसाव के मद्देनजर राज्‍य सरकार ने बदरीनाथ यात्रियों को सीमित संख्‍या में आगे भेजने की बात की थी, मगर स्‍थानीय कारोबारी और पंडे-पुजारी विरोध में उतर आए। दिसंबर-जनवरी माह में जोशीमठ के धंसने की खबरों से पूरे देश में हड़कंप मच गया था। मगर यात्रा सीजन शुरू होते ही खामोशी छा गई। जाहिर है, यात्रा सीजन की कमाई से समझौता करने को कोई तैयार नहीं है, भले ही इलाके की भूगर्मीय स्थिति कितनी भी विकट क्‍यों न हो। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि बड़े निर्माणों के कारण पहाड़ी नदियों के जलागम क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं और नदी, नाले, घाटियां डंपिंग जोन बनते जा रहे हैं। बड़ी-छोटी और बरसाती नदियों के मुहाने तो कब के गुम होकर बड़े-बड़े अतिक्रमणों में बदल गए है। देहरादून के निकट मालदेवता में डिफेंस ट्रेनिंग इंस्‍टीट्यूट की जो इमारत रविवार को ताश के पत्तो की तरह ढही, वह सोंग नदी के कैचमेंट पर खड़ी थी। गनीमत रही कि यहां कोचिंग ले रहे 85 बच्‍चों को यहां से पहले ही हटा दिया गया था।

पहाड़ों में बारिशें पहले भी हुआ करती थीं और कई दिनों तक अनवरत चला करती थीं। सावन के महीने सूरज के दर्शन मुश्किल हो पाते थे लेकिन बच्‍चे हंसी-खुशी स्‍कूल कॉलेज जाते थे। तब दूर-दराज के इलाकों में कच्‍ची सड़कों का अवरुद्ध होना सामान्‍य बात थी लेकिन चूंकि इनके आसपास मानवीय हस्‍तक्षेप/अतिक्रमण का ऐसा दस्‍तूर नहीं था, सो नुकसान नहीं होता था। तब नीतियों में तीर्थाटन को पर्यटन मानने की जिद शामिल नहीं थी और सरकारें इन संवेदनशील तीर्थस्‍थलों पर उमड़ रही भक्‍तों की भीड़ को पर्यटन क्रांति से जोड़कर देखने को लालायित नहीं थीं।

मौसमी तबदीली को आज ग्‍लोबल वार्मिंग के दुष्‍प्रभावों से जोड़कर भी देखा जा रहा है। हालांकि मॉनसून पर इसका कितना तीव्र प्रभाव है, कहना कठिन है। पर यदि ऐसा है तो निश्चित ही आने वाले साल मुश्किल भरे होंगे। इस दिशा में और गहन शोधों व अध्‍ययनों की जरूरत है। बढ़ती आबादी के बीच हमें मॉनसून के पानी को अधिकाधिक उपयोगी बनाने के लिए ठोस संसाधन जुटाने होंगे। मौसमी पूर्वानुमान से जुड़ी तकनीकों को बढ़ावा देना होगा।
25 अगस्त 2023 

PHOTO CREDIT – pexels.com , PHOTO CREDIT – pixabay.com ,PHOTO CREDIT – google.com ,PHOTO CREDIT – https://twitter.com/

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