व्योमेश चन्द्र जुगरान
वन्यजीवों के संरक्षण की अवधारणा उत्तराखंड के संदर्भ में एक विकृति का रूप ले चुकी है। यहां बंदरों और जंगली सूअरों के कारण खेती-किसानी के छिन्न-भिन्न हो जाने से गांव खाली हो रहे हैं और इन खाली गांवों ने शिकार की तलाश को निकले तेंदुओं को शहरों का रास्ता दिखा दिया है। अब पहाड़ के भीड-भाड़ वाले शहरों को भी कर्फ्यू जैसे हालात का सामना करना पड़ रहा है।
हमें याद है 1994 में उत्तराखंड आंदोलन के दौरान जब शांत पहाड़ों में पहली बार एहतियातन कर्फ्यू लगा तो दूर-दराज के गांवों की महिलाओं के लिए ‘कर्फ्यू’ शब्द मेले में बिक रहे किसी अजूबे सामान की तरह था और वे कौतूहलवश निकटस्थ बाजार में इसे ‘देखने/खरीदने’ चली आती थीं। काफी मशक्कत के बाद भी वे नहीं समझ पातीं थी कि हिंसा व दंगा रोकने के लिए कर्फ्यू लगा है जिसमें लोगों के सड़कों पर निकलने की मनाही है।
आज उस घटना के तीस साल बाद उसी भोली-भाली पहाड़ी महिला के लिए कर्फ्यू का अर्थ महज इतना बदला है कि यह दंगों के लिए नहीं, बल्कि आदमखोर बाघ के लिए लगता है। ताजा उदाहरण बदरी-केदार यात्रा मार्ग का अहम पड़ाव और खूब भीड़-भाड़ वाला श्रीनगर शहर है जहां नरभक्षी तेंदुए भरी दोपहर घूमते पाए गए। इस जानवर ने अलग-अलग वारदातों में दो बच्चों को सरेआम मार डाला और कुछ महिलाओं को जख्मी कर दिया। इससे पूर्व पौड़ी के रिखणीखाल क्षेत्र में भी आदमखोरों के खिलाफ जिला प्रशासन को कर्फ्यू लगाना पड़ा था। यदि श्रीनगर जैसे जीवंत शहर को बाघ के कारण कर्फ्यू में झोंकना पड़े तो समझा जा सकता है कि पहाड़ के लिए खतरा कितना संगीन है।
पहाड़ में मनुष्य, जीव और जंगल के अंतर्संबंधों का सारा सारा संतुलन गड़बड़ा चुका है। गांवों तक फैल चुके जंगल के कारण मानवीय रिहाइशें वन्यजीवों के अतिक्रमण का शिकार हो रही हैं। मगर सरकारें हैं कि अब भी वन्यजीवों की रिहायश पर मानवीय दखलदांजी के आरोप लगाने से बाज नहीं आ रहीं। सरकारों के इसी ‘राजहठ’ के कारण पहाड़ों में जंगली जानवरों से खेती-किसानी को बचाने की कोशिशें हारने लगी है। लोग बंदरों और जंगली सूअरों के कारण पारंपरिक खेती से विमुख होकर यदि संरक्षित खेती का विकल्प चुन भी लें तो कुकुरमुत्तों की तरह फैल रहे गुलदारों (तेंदुओं) से खुद की रक्षा कैसे करें।
यह विषय हाल में देश की राजधानी दिल्ली में एक साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच पर भी विमर्श का भी हिस्सा बना। गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित यह कार्यक्रम मुख्यत: ‘अलकनंदा’ पत्रिका के स्वर्णजयंती विशेषांक और इसके संस्थापक हिन्दी कथा साहित्य के मूर्धन्य हस्ताक्षर स्वर्गीय श्री स्वरूप ढौडियाल की स्मृति पर केंद्रित था। इसमें पहाड़ की क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं और उनके सामाजिक सरोकारों पर भी समानांतर विमर्श चला और इसी क्रम में पहाड़ में मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच चल रहे संघर्ष और इसके परिणामस्वरूप जनधन व पशुधन की अपार हानि पर भी बात हुई।
कार्यक्रम के लिए पौड़ी से पहुंचे जाने-माने शिकारी और वन्यप्रेमी जॉय हुकिल ने पहाड़ में आतंक का पर्याय बन चुके इस जानवर (गुलदार) के बारे में बारीक से बारीक जानकारी दी और जंगल के अपने हैरतअंगेज अनुभव साझा किए। हुकिल अब तक करीब चार दर्जन आदमखोर गुलदारों को अपनी बंदूक से ढेर कर चुके हैं। उनका कहना था कि उन्हें कभी-कभी इस जानवर पर दया आती है। बाकी वन्य पशु तो जंगली घासपात और कंदमूल इत्यादि खाकर भी अपना काम चला लेते हैं मगर इसने तो मांस ही खाना है। प्रकृति ने इसे ऐसा ही बनाया है। अब यदि सरकारें इसका संरक्षण करना चाहती हैं तो उसके भोजन का इंतजाम भी सरकारों को ही करना होगा।
वन्यजीवों के कारण मानवीय संकट पर जनहित याचिकाओं के माध्यम से अदालतों में लड़ाई लड़ रहे अनु पंत ने बताया कि अदालतें यदि सरकार को निर्देश देती भी हैं तो बीच में खड़ी नौकरशाही लीपापोती कर सारी कोशिशों पर पानी फेर देती है। नैनीताल हाईकोर्ट ने गुलदारों, सूअरों और बंदरों के कारण हो रही जनधन की हानि पर विशेषज्ञों की कमेटी बनाने और रिपोर्ट तलब करने के निर्देश दिए तो ऐसी कमेटी बना दी गई जिसमें तितली म्यूजियम चलाने और जंगल सफारी कराने वाले व्यवसायियों को ले लिया गया। उन्होंने बताया कि कोर्ट में सरकार की ओर से पेश अधिवक्ता शासकीय आंकड़ों से हवाले से वन्यजीवों के कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा बहुत चालाकी से छोटा कर देते हैं। इसके लिए वे वन्यजीवों में गुलदार के अलावा सांप, बिच्छू, बंदर,भालू, सूअर, नीलगाय इत्यादि का एक बड़ा कुनबा खड़ा कर देते हैं। जाहिर है इन सब जीव-जंतुओं के कारण होने वाली मानव मौतों का आंकड़ा अनुपातिक रूप से छोटा हो जाता है।
जंगली जानवरों से खेती-किसानी को बचाने की जिद में पहाड़ों पर डेरा डाले और प्रशासन तक लगातार अपनी बात पहुंचा रहे सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर सुंदरियाल और विषय विशेषज्ञ उदित घिल्डियाल ने पहाड़ में जनधन और पशुधन हानि के मद्देनजर एक प्रेशर-ग्रुप बनाने पर जोर दिया। श्री सुंदरियाल ने बताया कि वे जंगली जानवरों से खेती-किसानी और जानमाल की रक्षा के लिए मुख्यमंत्री धामी के हाथों में बीस सूत्री ज्ञापन सौंप चुके हैं। इसमें गुलदारों की गणना, उन पर कॉलर आईडी लगाना, मौजूदा कानूनों में बदलाव, गांवों बस्तियों-स्कूलों के आसपास जंगली झाडि़यों का सफाया, जानवरों से होने वाली मौतों पर कम से कम 25 लाख का मुआवजा और वन विभाग को यथोचित मात्रा में पिंजरे और अन्य लॉजिस्टक सामग्री उपलब्ध कराना इत्यादि शामिल है।
उदित घिल्डियाल ने बताया कि अनेक पश्चिमी देशों में हिंसक वन्यजीवों के संतुलित संरक्षा का प्रावधान है। असंतुलन की स्थिति में सरकार न सिर्फ ‘बैलेंस हंटिंग’ की इजाजत देती है, बल्कि हंटर्स को इनामस्वरूप डॉलरों से भी नवाजती है। इस कड़ी में उन्होंने खासकर ऑस्ट्रेलिया और वहां के राष्ट्रीय पशु कंगारू का उदाहरण दिया जिनकी संख्या बढ़ने पर कई मर्तबा ‘बैलेंस हंटिंग’ का विकल्प अपनाना पड़ता है, वरना वे खेती को भारी नुकसान पहुंचाने लगते हैं। उन्होंने सुझाया कि भारत भी खासकर तेंदुओं और मानवों के बीच लगातार बढ़ते जा रहे संघर्ष के मद्देनजर वन्यजीव सुरक्षा से संबंधित सख्त कानूनों को लचीला बनाया जाना चाहिए।