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अप्रैल महीने में शुरू करें इन फसलों की बुवाई, होगा भरपूर फायदा

अप्रैल में गेहूं की कटाई और जून में धान/मक्का की बुवाई के बीच लगभग 50 से 60 दिन खेत खाली रहते हैं। इस समय किसान इन खाली खेतों में बागवानी, सब्जियों की खेती एवं कई नगदी फसलों की खेती कर धान/मक्का की बुवाई से पहले 50 से 60 दिनों में नगदी कमा सकते हैं। इस समय किसान अपने कुछ कमजोर खेतों में हरी खाद बनाने के लिए ढैंचा, लोबिया या मूंग इत्यादि फसलों की खेती कर सकते हैं।

इस प्रकार की खेती से किसानों को अधिक लाभ के साथ-साथ उर्वरक खर्च से निजात मिलता है। क्योंकि इन फसलों से उपज प्राप्त होने के बाद किसान जून में बोई जाने वाली फसल धान रोपने से एक-दो दिन पहले या मक्का बोने से 10-15 दिन पहले मिट्टी में जुताई करके इन्हें मिट्टी में मिलाने पर मिट्टी की सेहत सुधरती है। और मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है।

किसान अपने खाली खेत की मिट्टी की जांच करा सकते हैं। किसान हर तीन वर्षों में एक बार अपने खेतों की मिट्टी परीक्षण जरूर कराएं ताकि मिट्टी में उपलब्ध पोषक तत्वों (नत्रजन, फास्फोरस, पोटेशियम, सल्फर, जिंक, लोहा, तांबा, मैंगनीज व अन्य) की मात्रा और फसलों में कौनसी खाद कब व कितनी मात्रा में डालनी है, का पता चले।

मिट्टी जांच से मिट्टी में खराबी का भी पता चलता है ताकि उन्हें सुधारा जा सके। जैसे कि क्षारीयता को जिप्सम से, लवणीयता को जल निकास से तथा अम्लीयता को चूने से सुधारा जा सकता है।

उड़द की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि मे होती है। उड़द का बीज 6-8 किलो प्रति एकड़ की दर से बोना चाहिये। बुबाई के पूर्व बीज को 3 ग्राम थायरम या 2.5 ग्राम डायथेन एम-45 प्रति किलो बीज के मान से उपचारित करे। जैविक बीजोपचार के लिये ट्राइकोडर्मा फफूँद नाशक 5 से 6 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपयोग किया जाता है।

सोयाबीन की सबसे बेस्ट वैरायटी -आरकेएस 24 सोयाबीन की खेती अधिक हल्‍की रेतीली व हल्‍की भूमि को छोड्कर सभी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है परन्‍तु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिए अधिक उपयुक्‍त होती है। जहां भी खेत में पानी रूकता हो वहां सोयाबीन ना लें। ग्रीष्‍म कालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवश्‍य करनी चाहिए।

ढैंचा एक कम अवधि ( 45 दिन ) की हरी खाद की फसल है। सात किग्रा. बीज को राइजोबियम जैव खाद के साथ उपचारित करके एक फुट दूर लाईनों में बोए। अरहर की दो लाइनों के बीच एक मिश्रित फसल (मूंग या उड़द) की लाइन भी लगा सकते हैं, जोकि 60 से 90 दिन तक काट ली जाती है। अरहर की खेती करने से 15-20 क्विंटल/हेक्टेयर उपज असिंचित अवस्था में और 25-30 क्विंटल/हेक्टेयर उपज सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है।

मार्च से अप्रैल माह के मौसम को कई मुख्य सब्जी लगाने के लिए यह समय उपयुक्त माना जाता है। बाजार में अच्छे दाम मिल सके, इसलिए मार्च अप्रैल में कई सब्जियों की बुवाई की जाती है। इस महीने में बुवाई की जाने वाली मुख्य शाकभाजी लौकी, भिंडी, करेला, तोरई, बैंगन आदि है।

भिंडी की फसल में बीजो को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री तापमान की जरूरत होती है। इसके बाद जब पौधें अंकुरित हो जाते है तब इन पौधो को विकसित होने के लिए 30 से 35 डिग्री तापमान की जरूरत होती है। भिंडी की पंजाब-7 किस्म भिंडी की यह किस्म पीतरोग रोधी होती है, इस किस्म के पौधें 50 से 55 दिन के अंतराल में तोड़ने के लिए तैयार हो जाते है। यह देखने में हरे तथा सामान्य आकर के होते है। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 8 से 20 टन की पैदावार करती है।

लौकी की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। इस हिसाब से इसकी खेती के लिए मार्च से अप्रैल महीने उपयुक्त माना जाता है। इसकी बुआई गर्मी एवं वर्षा के समय में की जाती है। यह पाले को सहन करने में बिलकुल असमर्थ होती है। इसलिए लौकी की खेती में 30 डिग्री के आसपास का तापमान इसके लिए काफी अच्छा होता है। बीजो के अंकुरित होने के लिए सामान्य तथा पौधों को वृद्धि करने के लिए 35 से 40 डिग्री तक के तापमान की आवश्यकता होती है इसकी खेती विभिन्न प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं किन्तु उचित जल धारण क्षमता वाली जीवांश्म युक्त हल्की दोमट भूमि इसकी सफल खेती के लिए सर्वोत्तम मानी गयी हैं। लौकी की खेती में भूमि का पीएच मान 6 से 7 के मध्य होना चाहिए। काशी गंगा: लौकी की इस किस्म को अधिक पैदावार देने के लिए तैयार किया गया है। यह लगभग 400 से 450 क्विंटल के आसपास प्रति हेक्टेयर के हिसाब से पैदावार देती है। इसमें हरे तथा सामान्य आकार के फल होते है, यह लम्बाई में एक से डेढ़ फीट तक लम्बे होते है। लौकी की यह किस्म बीज रोपाई के 50 से 55 दिन बाद फल देना आरम्भ कर देते है|

करेले की बढ़वार के लिए न्यूनतम तापक्रम 20 डिग्री सेंटीग्रेड तथा अधिकतम 35 -40 डिग्री सेंटीग्रेड होना चाहिए। खेत में बनाये हुए हर थाल में चारों तरफ 4-5 करेले के बीज 2-3 सेमी गहराई पर बो देना चाहिए। ग्रीष्म ऋतु की फसल हेतु बीज को बोआई से पूर्व 12-18 घंटे तक पानी में रखते हैं। पौलिथिन बैग में एक बीज प्रति बैग ही बोते है। पंजाब करेला-1: इस किस्म को अधिक पैदावार के लिए उपयुक्त माना जाता है। यह किस्म करेले की 1 एकड़ में किसान को लगभग 50 से 60 क्विंटल तक उत्पादन मिल जाता है।

एक हेक्टेयर खेत में बैगन की रोपाई के लिए समान्य किस्मों का 250-300 ग्रा. एवं संकर किस्मों का 200-250 ग्रा, बीज पर्याप्त होता है। पूसा हाइब्रिड-6: इस किस्म के पौधा लगाने का समय- गर्मी के दिनों के लिये उपयुक्त है। पौधा लगाने के 60-65 दिनों के बाद पहली तुड़ाई की जा सकती है। फल का औसत वजन 200-250 ग्राम तक हो सकता है। इस किस्म की बुवाई करके प्रति हेक्टेयर 40-60 टन पैदावार प्राप्त की जा सकती है।

तोरई के पौधे सामान्य तापमान में अच्छे से अंकुरित होते है। इसके पौधे अधिकतम 35 से 40 डिग्री तापमान को ही सहन कर सकते है। किसान ध्यान दें कि तोरई की बुवाई के लिए लगभग 1 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 3-5 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। तोरई की बुवाई के लिए नाली विधि ज्यादा उपयुक्त मानी जाती है। पूसा चिकनी (घिया तोरई) किस्म को अधिक उगाया जाता है, इसके पौधों में निकलने वाले फल चिकने, मुलायम तथा गहरे हरे रंग के होते है। यह अधिक पैदावार देने वाली किस्म है जो बोने के 45 दिनों में बाद पैदावार देने लगती है। इस किस्म की पैदावार इसकी अच्छी फसल की देखभाल पर निर्भर होती है। तोरई की इस किस्म से लगभग 200-400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिल सकती है।

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