एक समय देहरादून अपने मौसम के साथ यहां के बासमती चावल और लीची के लिए जाना जाता था| इधर, दून-घाटी की आबोहवा में आये बदलाव ने केवल बासमती चावल ही नहीं बल्कि लीची की खुशबू भी कम कर दी कर दी है। आंकड़े बताते हैं कि दून की लीची कैसे साल दर साल अपनी पहचान खोती चली गई जानकारी के अनुसार साल 1970 में करीब 6500 हेक्टेयर लीची के बाग देहरादून में मौजूद थे, जो धीरे-धीरे अब महज 3070 हेक्टेयर भूमि पर ही रह गए है। पिछले साल करीब 8000 मीट्रिक टन लीची का उत्पादन हुआ था, जबकि इस बार इसमें और अधिक गिरावट देखने को मिली है।
देहरादून में न केवल लीची का उत्पादन कम हुआ है, बल्कि लीची के स्वरूप और स्वाद में भी अंतर आ गया है। पहले के मुकाबले लीची छोटी हो गई है। वहीं, उसके रंग और मिठास भी पहले से फीका हो गया है। स्थानीय लोगों कि माने तो पहले देहरादून की लीची के लेने के लिए अन्य प्रदेशों से भी लोग आते थे, लेकिन अब पहले वाली बात नहीं रही। देहरादून में खासतौर पर विकासनगर, नारायणपुर, बसंत विहार, रायपुर, कौलागढ़, राजपुर और डालनवाला क्षेत्रों में लीची के सबसे ज्यादा बाग थे|
उत्तराखंड अलग सूबा बनने के बाद देहरादून के आस-पास जमीनों के बढ़ते दामों के चलते दून के तमाम बागों पर कंक्रीट के जंगल उग आए है। दून में ‘विकास’ कार्यों ने ऐसी रफ्तार पकड़ी की यहां की आबोहवा भी बदल गई। जिसका सीधा असर लीची के स्वाद पर और इसकी पैदावार पर दिखाई दे रहा है। यही कारण है कि कभी लीची के लिए पहचाने जाने वाले देहरादून में आज लीची ही खत्म होती जा रही है। मार्केट में माँग के अनुसार लीची की आवक कुछ कम है।
अब उत्तराखण्ड में भी बिहार से लीची की आवक होती है। मौसम के बदलाव ने इस बार भी लीची की फसल पर खासा असर डाला है। दून, भोपुर,रानीपखरी में लीची ख़राब हो गयी है और इस बार लीची के प्रेमियों को लीची के स्वाद के लिए इन्तजार करना होगा| दून घाटी का जायदातर हिस्सा अपने फलों के बगीचे के लिए जाना जाता है|
दून घटी अपने रसीले फल लीची के लिए विशेष पहचान रखती है और यहाँ के बागो की लीची हवा में अपनी खुशबु बिखेरती है।
रानीपोखरी और भोगपुर, डालनवाला, ये दून घाटी की वो जगह है जो लीची बागानों के लिए मशहूर है। इस बार लगातार हो रहे मौसमी बदलाव और फरवरी से ही तपिश के कारण बागवानो की पूरी मेहनत पर असर पड़ा है। जिसके चलते लीची का उत्पादन कम होने का अनुमान है| और इस बार देहरादून की मशहूर लीची को बाज़ार में आने के लिए थोडा और इंतज़ार करना पड़ेगा और लीची के स्वाद के कद्रदानो को इसकी थोड़ी ज्यादा कीमत भी चुकानी पड़ेगी।
राज्य में कृषि और उद्यान के भारी भरकम विभाग तो है पर किसानो और बागवानो को हो रहे आर्थिक नुकसान के लिए कोई ठोस नीति नहीं है| मौसम की मार से हर साल लीची की फसलों को भारी नुकसान होता है लेकिन सरकार ठोस कृषि नीति न होने से कभी भी किसानो और बागवानो की मदद नहीं कर पाती |
किसानों और लीची उतपदको को उम्मीद है की आने वाले समय में लीची की फसल सही हो सकेगी। छोटे राज्य में रोजगार का सबसे आसान तरीका कृषि और बागवानी है, जो पलायन पर कुछ हद तक रोक लगाये है |