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जलवायु परिवर्तन के असर से 2050 से 20 फीसदी कम होगी धान की पैदावार

पेरिस ओलंपिक में जब भारत की महिला पहलवान जीतने के लिए संघर्ष कर रही थी, भारतीय संसद में जलवायु परिवर्तन से धान की खेती पर बदलती आबोहवा के असर से जुड़े सवाल पर चर्चा चल रही थी। संसद में जो बताया गया वह भारतीय किसानों और कृषि वैज्ञानिकों के लिए भी चिंताजनक है।

संसद में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय कृषि एवं कृषक कल्याण राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी ने लोकसभा में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कि जलवायु के अनुकूल ढलने वाले उपायों को न अपना पाने की स्थिति में अनुमान है कि साल 2050 में बारिश पर निर्भर धान की पैदावार में 20 फीसदी और 2080 परिदृश्यों में 47 फीसदी की कमी आ सकती है।

जबकि सिंचित इलाकों में धान की पैदावार में 2050 में 3.5 फीसदी और 2080 में पांच फीसदी, गेहूं की पैदावार 2050 में 19.3 फीसदी और 2080 में 40 फीसदी, खरीफ मक्का की पैदावार में 2050 के परिदृश्यों में 18 फीसदी और 2080 में 23 फीसदी तक की कमी आने की आशंका जताई गई है। वहीं, सोयाबीन की पैदावार 2030 में तीन से 10 फीसदी और 2080 में 14 फीसदी तक बढ़ने का अनुमान है।

एक और सवाल के जवाब में, राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी ने लोकसभा में कहा कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) धान सहित विभिन्न फसलों की अधिक उपज देने वाली जलवायु सहनशील किस्मों या संकरों के लिए शोध और विकास में सक्रिय रूप से लगी हुई है, जो बेहतर गुणवत्ता के साथ विभिन्न जैविक और अजैविक तनावों के प्रति सहनशील हैं। पिछले 10 वर्षों (2014-24) के दौरान, कुल 57 सूखा व कम नमी से संबंधित तनाव सहन करने वाली धान की किस्में विकसित की गई हैं जो कम बारिश की स्थिति में खेती के लिए उपयुक्त हैं।

लोकसभा में बताया कि देश में जैविक खेती के अंतर्गत कुल 59.74 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को शामिल किया गया है। जिसमें राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम के तहत 44.75 लाख हेक्टेयर, परम्परागत कृषि विकास योजना के तहत 14.99 लाख हेक्टेयर जिसमें से भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति के अंतर्गत 2.15 लाख हेक्टेयर शामिल है। देश के 48.30 लाख किसान, जिसमें से राष्ट्रीय जैविक उत्पादन कार्यक्रम में 23.58 लाख किसान, परम्परागत कृषि विकास योजना में 24.72 लाख (भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति के अंतर्गत 5.34 लाख) किसान शामिल हैं।

 

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