उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के गंग, यमुना घाटी और टौंस घाटी के निकट के जंगलों में लगी आग विकराल रूप लिए हुए है| इसके कारण गंगा घाटी से लेकर यमुना और टौंस घाटी में धुआं ही धुआं छाया हुआ है| यही नहीं, लगातार आग की घटनाओं से जहां पर्यावरण और वन्य जीवों को भारी नुकसान हो रहा है, तो वहीं चारों तरफ फैला धुएं का गुबार इंसानी स्वास्थ्य पर भी भारी पड़ रहा है जिससे अस्पताल में मरीजों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है|
जंगल की आग ने सटी बस्तियों का जीना मुहाल कर ही दिया है, अब वन विभाग की कार्य प्रणाली सवालों के घेरे में आ गई है. टिहरी, उत्तरकाशी और नैनीताल में विभाग के प्रति लोग गुस्से में हैं|
हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड में पारा तो चढ़ ही रहा है, जंगलों की आग भी बढ़ रही है| शुक्रवार 29 अप्रैल को ही राज्य भर में 155 वनाग्नि घटनाएं दर्ज हुईं. इनमें से 7 घटनाएं तो संरक्षित वाइल्डलाइफ अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के भीतर की घटनाएं हैं| वन विभाग पर लगातार सवाल खड़े हो रहे हैं, लेकिन सवाल है कि वन विभाग जंगल की आग पर काबू क्यों नहीं कर पा रहा! विभाग के पास इसका जवाब यह है कि स्टाफ कम होने के बावजूद जो संभव हो सकता है, किया जा रहा है|
बीती 15 फरवरी से 29 अप्रैल तक के आंकड़ों के अनुसार राज्य में जंगलों में आग की 1713 घटनाएं हुईं, जिनमें 2785 हेक्टेयर जंगल जल गया| अल्मोड़ा, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ और बागेश्वर में तबाही सबसे ज़्यादा हुई जबकि ऐसा कोई ज़िला नहीं, जहां जंगल न जले हों| उत्तराखंड में 71% हिस्सा जंगल है, जिसमें से ज़्यादातर या तो रिज़र्व या संरक्षित हिस्सा है या शेष वन पंचायतों के अधीन है| संरक्षित हिस्से में वन विभाग की फोर्स होती है और वन पंचायतों में स्थानीय लोगों के समूह प्रबंधन करते हैं|
आंकड़े बताते हैं कि आग लगने की कम से कम 1190 घटनाएं रिज़र्व फॉरेस्ट में हुई हैं जबकि 571 वन पंचायत क्षेत्रों में| मुख्य संरक्षक के अनुसार- ‘मुख्य रूप से आग लगने की घटनाएं चीड़ के जंगलों में हुई हैं, जो बेहद ज्वलनशील हैं| चूंकि संरक्षित जंगलों में भी स्थानीय लोग चारे और लकड़ी के लिए घुसते हैं इसलिए उनकी गतिविधियां भी ज़िम्मेदार हो सकती हैं|’
जंगलों में आग से जो धुआं मिश्रित धुंध छा गई है, उससे स्थानीय लोगों को आंखों और सांस की तकलीफ़ हो रही है| अल्मोड़ा के लामगाड़ा निवासी 63 वर्षीय लक्ष्मण सिंह ने कहा कि कुछ सालों से उन्हें सांस की तकलीफ है और यह काला धुआं उनके लिए बड़ी मुश्किल है| तो विज़िबिलिटी कम होने से टूरिस्ट नैनीताल समेत दूसरे स्थानों का रुख कर रहे हैं| स्थानीय लोगों को बारिश से ही उम्मीद है. 29 अप्रैल को रुद्रप्रयाग और बागेश्वर में बारिश से कुछ राहत मिली भी है|
एक जनहित याचिका की सुनवाई में नैनीताल स्थित हाई कोर्ट ने वन विभाग को निर्देश दिए थे कि छह महीने के भीतर फॉरेस्ट गार्ड के खाली पदों को भरा जाए| जंगलों की आग पर काबू के लिए कोर्ट ने SDRF को हेलिकॉप्टर और अन्य हवाई उपकरण मुहैया करवाने के निर्देश भी दिए थे|कोर्ट ने आर्टिफिशियल बारिश के विकल्प भी सुझाए थे| हालांकि कोर्ट के निर्देशों पर क्या अमल हुआ, इसे लेकर स्थिति कतई स्पष्ट नहीं है|
नॉर्थ रेंज में फॉरेस्ट फायर की सबसे अधिक घटनाएं अल्मोड़ा में हो चुकी हैं|
पिथौरागढ़, चम्पावत और बागेश्वर भी इसी रेंज में हैं लेकिन इसी रेंज में वन कर्मचारियों का टोटा भी सालों से है|
नॉर्थ रेंज में फॉरेस्ट गॉर्ड, फोरेस्टर, रेंजर सहित कुल 915 पद स्वीकृत हैं, लेकिन फिलहाल तैनाती सिर्फ 544 की है. 40 फीसदी स्टाफ कम होने से वन विभाग खुद को मजबूर बता रहा है| ज़ोन के वन संरक्षक प्रवीन कुमार ने बताया कि स्टाफ कमी के बावजदू विभाग ने आग पर काबू पाने के लिए ठेके पर कर्मचारी रखे हैं|