पूरे इतिहास में, वन इन्सानों के लिए आश्रय, भोजन, आजीविका, सुरक्षा, और जीवट की स्थली रहे हैं। नयी ‘भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2023’ के मुताबिक, भारत की 25 फीसदी जमीन वनों या पेड़ों से आच्छादित है। यह आंकड़ा स्वस्थ और राष्ट्रीय वन नीति की सिफारिशों के एक कदम और करीब लगता है। लेकिन बड़े आंकड़े अक्सर समस्या को छिपाते हैं। आजादी के बाद, भारत का वन प्रबंधन यूरोपीय उपनिवेशवादियों के उस संकीर्ण नजरिए से मुक्ति के प्रयास की मिसाल रहा है जो वनों को इमारती लकड़ी का स्रोत मानता था।
यह संकीर्ण नजरिया देश को विरासत में मिले कानूनों में संहिताबद्ध था। इस संबंध में दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 और वन (अधिकार) अधिनियम 2006 हैं। हालांकि औद्योगिक विकास की प्रतिकारी शक्तियों और राज्य पर जलवायु परिवर्तन के दबाव ने इन दोनों अधिनियमों को लागू करने में परेशानी पैदा की है और अफसोस की बात है कि सरकार ने आसान रास्ता चुना है।
अदालतों और संरक्षणवादियों ने मांग की है कि राज्य को वनों की शब्दकोशीय परिभाषा का पालन करना चाहिए, जबकि प्रशासन बागानों (प्लांटेशनों) व फलोद्यानों को इसमें शामिल करते हुए,‘सामुदायिक’ वनों व अन्य को इससे बाहर करने के लिए परिभाषा को भ्रामक बनाता रहा है।
भले ही प्रशासन का प्रोत्साहन संदिग्ध है, लेकिन यह भारत को इस बात की इजाजत दे रहा है कि वह अपनी विकास गतिविधियां निर्बाध ढंग से जारी रखते हुए, यह दावा करे कि वह अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं के लिए अपना कार्बन सिंक बढ़ा रहा है। इस प्रकार, 25 फीसदी का आंकड़ा जैव-विविधता से भरे पश्चिमी घाट, नीलगिरि व पूर्वोत्तर में वन-आच्छादन में आयी कमी, ‘मध्यम सघन’ वनों और कच्छ व अंडमान में दलदली वनों के सिकुड़ने, और खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी-तंत्रों पर खतरा बने रहने को छिपाता है। https://khalihannews.com इस प्रकार, 25 फीसदी का आंकड़ा जैव-विविधता से भरे पश्चिमी घाट, नीलगिरि व पूर्वोत्तर में वन-आच्छादन में आयी कमी, ‘मध्यम सघन’ वनों और कच्छ व अंडमान में दलदली वनों के सिकुड़ने, और खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी-तंत्रों पर खतरा बने रहने को छिपाता है। रिपोर्ट में इस बारे में ब्योरे का अभाव है कि क्या निम्नीकृत (डिग्रेडेड) भूमि की कार्बन पृथक्करण (carbon sequestration) क्षमता के उसके अनुमान उन विशिष्ट उपयोगों की भूमिका की व्याख्या करते हैं जिनके वे अभी अधीन रही हैं।
वास्तव में, सैद्धांतिक और वास्तविक वनों के बीच बढ़ते अंतर का विस्तार आर्थिक स्थिति तक है। कई उत्तरी जिलों में, आग से वनाच्छादन को हुई हानि दो सालों में लगभग 10 गुना बढ़ गयी है। ‘द हिंदू’ की जमीनी रिपोर्टों ने आग पर नियंत्रण के लिए मानव संसाधन, कौशल और उपकरणों के अपर्याप्त होने का दस्तावेजीकरण किया है। आर्थिक विकास जरूरी है और पेड़ों की भी हानि होगी, लेकिन ठीक यही वजह है कि वृद्धि के आवेग पर कानून जो लगाम लगाता है वह भी जरूरी है। इसके बावजूद, सरकार पर्यावरणीय सुरक्षात्मक उपायों को कमजोर करती और वनों की आधिकारिक सूची को तोड़ती-मरोड़ती रही है। हाल में, वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2023 ने 1980 के अधिनियम को और संकुचित कर दिया है। अंत में इससे किसी को लाभ होने की कल्पना करना कठिन है।