देश के रेतीले राजस्थानी इलाके में मोटे अनाज के अलावा सरसों की खेती भी बड़े इलाके में होती है। इन इलाकों में झुंझुनूं जिला भी है। यहां की मंडियों में सरसों की भरपूर आवक होती है।
कोरोना से पहले तक सरसों की फसल पकने के बाद किसान को सरसों कढ़ाई (निकलवाने) के लिए प्रति घंटा 1200 रुपए के हिसाब से ट्रैक्टर चालक को भुगतान करना पड़ता था। तब पराली खेत में ही पड़ी रहती थी। जिसे या तो खेत में ही जलाना पड़ता था या फिर दूसरी जगह डलवाने के लिए किसान को अलग से गाड़ी का खर्चा वहन करना पड़ता था। खेत में जलाने से प्रदूषण होता था।
अब ऐसा नहीं है। अब यह पराली कमाई का जरिया बन गई है। यह किसान के साथ ट्रैक्टर चालकों व ईंट भट्टा मालिकों के लिए फायदे का सौदा हो गई है। भास्कर ने इस संबंध में किसानों, ट्रैक्टर चालकों व ईंट भट्टा मालिकों से बात की तो सामने आया कि कोरोना से पहले पराली को खेतों में ही जलाया जाता था। कोरोना में ऑक्सीजन की महत्ता मालूम पड़ी तो इसे जलाना बंद किया। तब से इसका सदुपयोग शुरू हो गया है।
जब से पराली का उपयोग ईंट भट्टों में होने लगा है, तब से ट्रैक्टर चालक पराली के बदले में ही सरसों निकालने लगे हैं। यानी किसान को सरसों निकलवाने के लिए रुपए नहीं देने पड़ते। इसके साथ ही उसे पराली खेत में जलाने के झंझट से भी निजात मिल गई। इससे सबसे बड़ा फायदा पर्यावरण को हुआ है। पहले खेतों में ही पराली जलाने से प्रदूषण फैलता था। अब इसका ईंट भट्ठों में उपयोग होने लगा। सरसों निकलवाने के बदले पराली ले जाने का यह ट्रेंड इस साल ही शुरू हुआ है।
पराली ऑयली होने से यह आग तेजी से पकड़ी है। इसलिए ईंट भट्टों में ईंट पकाने के लिए इसे काम में लिया जाने लगा है। इससे भट्टा संचालकों को ईंट पकाने के लिए अन्य ईंधन पर ज्यादा रुपए खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती। ईंट भट्टा संचालकों का कहना है कि पहले एक लाख ईंट तैयार करने में इंधन पर 15 से 20 हजार रुपए खर्च होते थे। अब पराली काम में लेने पर यह खर्चा घटकर 10 हजार से कम हो गया है। यानी किसान, ट्रैक्टर चालक व भट्टा मालिक सभी को फायदा हो रहा है।
जब से पराली का उपयोग ईंट भट्टों में होने लगा है, तब से ट्रैक्टर चालक पराली के बदले में ही सरसों निकालने लगे हैं। यानी किसान को सरसों निकलवाने के लिए रुपए नहीं देने पड़ते। इसके साथ ही उसे पराली खेत में जलाने के झंझट से भी निजात मिल गई। इससे सबसे बड़ा फायदा पर्यावरण को हुआ है। पहले खेतों में ही पराली जलाने से प्रदूषण फैलता था। अब इसका ईंट भट्ठों में उपयोग होने लगा। सरसों निकलवाने के बदले पराली ले जाने का ईंधन का यह चलन इस साल ही शुरू हुआ है।