बसंतकालीन गन्ने में लगे चोटी-बेधक (टाप-बोरर) रोग बचाव के लिए हरियाणा व पंजाब के किसानों ने देसी हथकंडा अपनाया है| इस तरह से किसानों ने न केवल अपनी खेती बचायी है बल्कि कीटनाशक दवाइयों पर होने वाले ख़र्च की भी बचत की है| हरियाणा में किसानों का रुझान गन्ने की खेती की ओर बढा है|
गन्ने की फसल को चोटी-बेधक से बचाव के लिए अब महंगी दवाइयों के छिड़काव की जरूरत नहीं है। फीरोमोन ट्रैप लगाकर किसान अपनी फसल की सुरक्षा कर रहे हैं। इसके दो फायदे हैं। पहला दवाइयों पर होने वाला खर्च बच जाता है। दूसरा जहरीले रसायनों से पर्यावरण प्रदूषित होने से बच रहा है।
चोटी-बेधक(टोप बोरर) व अन्य कीटों के प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए फीरोमोन ट्रैप विधि का प्रयोग किया जाता है। इसके तहत लकड़ी की एक लंबी छड़ के ऊपर प्लास्टिक एक एक कटोरानुमा होता है। इसमें पानी व तेल का मिश्रण डाल दिया जाता है। फेरोमोन एक रसायन होता है जो कीट द्वारा छोड़ा जाता है। इस कटोरेनुमा बर्तन के ऊपर एक कैप्सूल लगा दिया जाता है। इस कैप्सूल से ही यह रसायन रीलीज होता है। जिसके प्रति नर कीट आकर्षित होता है। जैसे ही नर कीट इसकी ओर आकर्षित होता है तो वह बर्तन में पड़े तेल व पानी के मिश्रण में फंसकर मर जाता है। एक रात में सैकड़ों नर कीट मर जाते हैं। नर कीट से मरने से प्रजनन क्रिया रुक जाती है।
गन्ने की फसल में टोप बोरर से पहले चोटी बेधक कीट के प्रकोप से संक्रमित पौधों की पत्तियों में छर्रे लगे जैसे चित्र पाए जाते हैं। मध्य गोभ में सड़न हो जाती है। इसके प्रकोप से गन्ने की फसल प्रभावित होती है और असर पैदावार पर देखा जाता है। गन्ने की 238 किस्म पर इसका प्रकोप अधिक देखा जा रहा है।
हरियाणा में गन्ने की फसल में टॉप बेरर (चोटी बेधक) बीमारी ने दस्तक देे दी है। इससे किसान और विभाग दोनों अलर्ट हो गए हैं। कृषि विभाग ने इसको लेकर अलग-अलग जिलों में सर्वे भी कराया है। करनाल, कैथल, कुरुक्षेत्र और यमुनानगर में इसका अधिक प्रभाव है, जबकि जींद, रोहतक और झज्जर में कम है। खास बात ये है कि सीओ 238 किस्म में बीमारी अधिक है, जबकि सीओएच-160 और सीओ 239 में यह कम है।
यह बीमारी अप्रैल-मई में शुरू होती है और अक्तूबर तक रहती है। इसमें कीट पत्तियों की गोभ में चला जाता है। फैलते हुए यह अगोले (हरा चारा) तक पहुंच जाता है और गन्ने की पोरियों की आंखों को क्षतिग्रस्त कर देता है। कुल मिलाकर इसका गन्ने की उत्पादन, गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है और अगोला कम होता है। अगर समय पर इस बीमारी को नियंत्रित नहीं किया जाए तो इससे 50 से 60 प्रतिशत तक उत्पादन प्रभावित हो सकता है।
शुगर की मात्रा अधिक होने से आती है बीमारी वैज्ञानिकों का कहना है कि सीओ-238 किस्म में शुगर की मात्रा काफी अधिक होती है, जो कीट को आकर्षित करती है। इसके अलावा, नाइट्रोजन का अधिक इस्तेमाल भी इसका एक कारण है। इसलिए अब विभाग की ओर से किसानों को इस किस्म के कम लगाने पर जोर दिया जा रहा है। फसल में प्रोफेनोफास और साइपरथरीन का प्रयोग करें। परवीजी ट्राइकोग्रामा जापोनिकम से भी कीट को खत्म किया जा सकता है।