केंद्र सरकार ने 2017 में भागलपुर की कतरनी को जियो का (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) टैग दिया था| इसका उद्देश्य बाजार में उत्पादों को प्रमुखता दिलाने का था| लेकिन, राज्य सरकार की उदासीनता ने कतरनी को विलुप्त होने के कगार पर ला दिया है| किसान भी करीब 10 सालों से सरकार की तरफ उम्मीद लगाए बैठे हैं कि सरकार सिंचाई की कोई समुचित व्यवस्था करेगी ताकि कतरनी पुराने अंदाज में लौटकर पूरे देश में अपनी खुशबू बिखेर सके|
पहले जहां कतरनी धान की फसल 155 दिनों में तैयार होती थी, नई किस्म 135 दिनों में ही तैयार हो जाएगी। उत्पादन भी 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की जगह 45 क्विंटल हो जाएगा। खुशबू और गुणवत्ता और बेहतर हो जाएगी।
भागलपुर में चानन और चंपा नदी के किनारे कतरनी धान की खेती होती थी। नदी के सूख जाने के बाद धीरे धीरे कतरनी धान की उपज भी समाप्त हो गई, जबकि बिहार सरकार ने कतरनी धान की जीआई टैगिंग कराई है।
कतरनी की उपज घटने के बाद बीएयू ने नई किस्म इजाद की। इस किस्म में खास तौर से पानी की जरूरत कम होगी। पहले कतरनी का पौधा 160 सेमी का होता था। ये खेत में गिर जाते थे। नई किस्म में पौधा 110 सेमी का होगा। इसलिए इसके गिरने की संभावना कम होगी|
पौधा प्रजनन एवं अनुवांशिकी विभाग के युवा विज्ञानी डॉ. मंकेश कहते हैं कि इस बार किसानों को अपने खेतों में बोआई करने के लिए नई कतरनी के बीज उपलब्ध कराए जाएंगे।
सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो भागलपुर और आसपास का इलाका एक बार फिर कतरनी की खुशबू से महक उठेगा।
प्रसार शिक्षा निदेशक डॉ. आरके सोहाने बताते हैं कि कतरनी धान की खेती भागलपुर में चार सौ एकड़, बांका में तीन सौ एकड़ और मुंगेर में एक सौ एकड़ में खेती होती है। उत्पादन क्षमता कम होने की वजह से किसानों का रुझान इससे कम हो गया था। अब इस नई किस्म की जानकारी देकर किसानों को इसके प्रति जागरूक किया जाएगा।
भागलपुर की पहचान कतरनी की बड़े पैमाने पर खेती की जा सकेगी। देश के बाजारों में इसकी धमक होगी। विश्वविद्यालय इसको लेकर लगातार प्रयास कर रहा है।