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चारधाम यात्रा के नए रूट जरूरी

व्‍योमेश चन्‍द्र जुगरान

देश के कोने-कोने से चारधाम यात्रा को आए श्रद्धानत जत्‍थों के सांझा चूल्‍हे अब यात्रा मार्गों पर नहीं दिखते। दिखता है तो एक उत्‍शृंखल सैर-सपाटा, सड़कों पर सैकड़ों वाहनों की दौड़, मंहगी कारों में जल्‍द पहुंचने की होड़ और कायदों को ठेंगा दिखाता व्‍यवसायीकरण। लगता है, उत्तराखंड में पारंपरिक तीर्थाटन ने ‘बंपर पर्यटन’ का भेष धर लिया है। हिमालय के चार धामों की यात्रा जो पूरे देश में जनमानस के बीच धार्मिक आस्‍था और सांस्‍कृतिक शुचिता के लिए जानी जाती थी, आज एक अराजक भीड़, अफरा-तफरी और इको तंत्र से जुड़े खतरों के कारण आलोचना की शिकार है।
एक तीर्थ के रूप में गंगा-यमुना के उद्गमों और बदरी-केदार को पूरा देश बहुत श्रद्धा और सम्‍मान से देखता है। जाहिर है, ऐसी श्रद्धा को ठेस पहुंचाने वाली कोई भी अव्‍यवस्‍था और मलिनता धर्मप्राण जनता के मन को चोट पहुंचाएगी। इसका ठीकरा अथाह और अनियंत्रित भीड़ के सिर फोड़ना भी ठीक नहीं होगा। भीड़ तब तक दोषी नहीं ठहराई जा सकती, जब तक कि उत्तरदायी तंत्र स्‍वयं को कुशल प्रबंधक साबित न कर दे। सरकारें हर साल यात्रा सीजन से पहले अप्रैल की समीक्षा बैठकों में खूब दमखम ठोकती हैं। उनका हर संबंधित महकमा सुव्‍यवस्थित यात्रा का इत्‍मीनान दिला रहा होता है। मगर यात्रा के पहले हफ्ते ही मालूम पड़ जाता है कि सौ गज के दावे मात्र नौ गज वाले निकले।

यह सच है कि हमारे देश में तीर्थाटन और पर्यटन एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। उत्तर से लेकर दक्षिण तक जहां भी दृष्टि डालेंगे, अधिकांश मामलों में तीर्थस्‍थलों की छत्रछाया में ही पर्यटन फला-फूला है। बदरी-केदार धाम भी इसका अपवाद नहीं हैं लेकिन संवेदनशील उच्‍च हिमालय का संसर्ग और यात्रा परंपरा की प्राचीनता के कारण यहां तीर्थाटन और पर्यटन के बीच एक विभाजक रेखा सदैव मौजूद रही है। सदियों से लोग देवदर्शन के अलावा देव विग्रहों की प्रवास डोलियों के संसर्ग और प्रसंग-प्रसाद से धन्‍य होते आए हैं। उनके लिए इन धामों की अनूठी परंपराएं, दिव्‍यता और शुचिता का अनुभव ही पर्यटन का वास्‍तविक आनंद है।
आज यही दिव्‍यता और शुचिता अनेकानेक कारणों से मलिनता में बदलती जा रही है। पहले जो यात्रा तीरथ और धार्मिक काज के कारण सांस्कृतिक और पारिस्थितिक चेतना लिए हुए थी, आज एक पेशेवर आवरण में है। चाय और स्‍थानीय खानपान की सस्‍ती दुकानों, विश्रामगृहों और धर्मशालाओं की जगह अब महंगे मैगी प्‍वाइंट और आलीशान रिसार्ट और होटल हैं। सड़कें आए दिन घंटों के हिसाब से जाम से जूझ रही हैं। इन नए दबावों का सबसे ज्‍यादा असर साधनहीन उस भोले-भाले भक्‍त पर पड़ा है जो अपनी आस्‍था के वशीभूत देश के कोने-कोने से हिमालय के इन देवालयों तक आता है।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चारधाम राजमार्ग जैसी महत्‍वाकांक्षी परियोजनाएं परवान चढ़ी हैं, केदारनाथ का कायाकल्‍प हुआ है, बदरीनाथ धाम का भी जीर्णोद्धार हो रहा है, कर्णप्रयाग रेल परियोजना प्रगति पथ पर है और हेली सेवाओं के जरिये भी उत्तराखंड में तीर्थाटन की नई उड़ान का दम भरा जा रहा है। पर यकीन मानिए साधनहीन आम तीर्थयात्री का ‘कंकट पथ’ संवरा नही है। उसे आज भी यातायात के सार्वजनिक साधनों के अभाव में हरिद्वार-ऋषिकेश में लंबे इंतजार और मौके का फायदा उठाने वाले मोटर एजेंटों के चंगुल से मुक्ति नहीं मिल सकी है। उसके इर्दगिर्द अब भी पाखंडियों के फेर, जेबें गरम करती पर्यटन पुलिस, कमाई के साधन में तब्दील धर्मशालाएं, भोजन-पानी के मनमाने रेट, शौच की भटकन और मौत का डर दिखाता असुरक्षित यातायात जैसे कांटे बिछे हैं। लेकिन आस्‍था और भक्तिभाव से आह्लादित वह कष्‍टों को तपस्‍या मानकर तीर्थयात्रा का अधिकाधिक पुण्य-प्रताप बटोर लेना चाहता है। उसे इस बात का क्‍या परवाह कि अमीर लोग प्रसाद की महंगी थाली की एवज में ‘वीआईपी दर्शन’ पा गए! वह तो भगवान को अर्पित करने के लिए कमर में चना-चबेना लेकर पहुंचा ‘सुदामा’ है जिसकी आस्‍था उसे भगवान से सीधे जोड़ती है।

दुर्भाग्यवश यह गरीब ‘सुदामा’ ही आधुनिक पर्यटन का सबसे बड़ा बैरी मान लिया गया है। साफ सी बात है, सरकारें यदि तीर्थों के विकास और बुनियादी ढांचे पर इतना अधिक खर्च कर रही हैं तो इसके केंद्र में ‘सुदामा’ तो हो नहीं सकता। सरकारों को ‘बंपर पर्यटन’ चाहिए। चारधाम यात्रा के शीतकालीन सत्र के इरादे भी इसी तर्क के आधार पर जताए जाते रहे हैं कि सरकारें यदि तीर्थ विकास पर इतना अधिक व्‍यय कर रही हैं तो उसका उपयोग सिर्फ छह माह क्‍यों हो ! उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार के दौरान तो बाकायदा हरिद्वार-ऋषिकेश में शीतकालीन यात्रा के लिए रजिस्‍ट्रेशन तक प्रारंभ कर दिया गया था। हालांकि यह योजना उन मंदिरों के लिए थी जहां शीतकाल में देव विग्रह प्रवास करते हैं। यह अलग बात है कि इक्का-दुक्का पंजीकरण को छोड़ शीतकालीन तीर्थयात्री सामने नहीं आए। सरकारों को याद रखना चाहिए कि हमारे पुरखों ने इन मंदिरों के कपाट खुलने और बंद होने के नियम बनाए और शीतकाल में उनके विग्रहों को नीचे ले आए तो उद्देश्‍य यही था कि इस अवधि में हिम‌शिखर मानवीय दखलंदाजी से दूर रह अधिकाधिक बर्फ से ढके रहें।
हिमालय के रखवारों की चिन्‍ता तीर्थस्‍थलों के विकास के उस मॉडल को लेकर है जो तीर्थाटन और पर्यटन की विभाजक रेखा को मिटाने पर आमादा है। ऐसा नहीं है कि सैर-सपाटा और व्‍यवसायिकता पहले नहीं थी, पर आस्‍था और भक्तिभाव का पलड़ा भारी रहता था। मौजूदा भीड़-भड़ाका और मौज-मस्ती इस तीर्थयात्रा के स्‍वभाव में कभी नहीं था। हाल में यमुनोत्री और केदारनाथ में उमड़े जन सैलाब के डरावने दृश्‍य हम सबने देखे। पिछले साल भी केदारनाथ में दर्शनों के लिए तीन-तीन किलोमीटर की लाइन लग गई और हरिद्वार में श्रद्धालुओं को औसतन चार-पांच घंटे के ट्रैफिक जाम से जूझना पड़ा। क्षमता से दुगने-तिगुने यात्रियों के आ धमकने से कई जगह उन्‍हें स्‍कूलों और तंबुओं में ठहराना पड़ा।

यात्रा के ऑनलाइन रजिस्‍ट्रेशन की अनिवार्यता जैसे ‘स्‍पीड ब्रेकर’ पसीने से नहाए प्रशासन को रूमालपोशी का मौका भले ही दें, मगर आधारभूत परिवर्तन को सोच का हिस्‍सा बनाए बगैर अव्‍यवस्‍था की बू से पिंड छुड़ाना मुश्किल है। हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन बढ़े, यह काम बहुत तैयारी और सावधानी से तीर्थाटन की मर्यादाओं के अनुरूप होना चाहिए। सरकारें यह न भूलें कि उत्तराखंड की चारधाम यात्रा देश की सांस्कृतिक धरोहर है और धार्मिक मान्यताओं, आस्थाओं, सामाजिक-सांस्‍कृतिक मूल्‍यों और प्राकृतिक संसाधनों के सरंक्षण की भी वारिस है। यात्रा से जुड़े सभी हितधारकों को तीर्थाटन और पर्यटन (अमर्यादित) में फर्क करना होगा। श्राइन बोर्ड की तर्ज पर गठित देवस्‍थानम बोर्ड जैसे निर्णय दृढ़ता के साथ पुन: लागू करने होंगे। हरिद्वार-ऋशिकेश के अलावा वैकल्पिक मार्गों का विवेकपूर्ण उपयोग भी जरूरी है। पौड़ी से कर्णप्रयाग के लिए सीधी सड़क है। यह घने जंगलों की ठंडी तासीर और यात्रियों को सुकून देने वाला मोटर मार्ग है। यह एक ओर देवप्रयाग तो दूसरी ओर कोटद्वार व रामनगर से जुड़ा है। यह चारधाम राजमार्ग के समानांतर एक शानदार वैकल्पिक मार्ग हो सकता है, बशर्ते सरकार इसे दुरुस्‍त कर बदरी-केदार यात्रा की अपनी प्रचार सामग्री में शामिल करे।

कुमाऊं मंडल की बागेश्‍वर-गरुड़ घाटी से ग्‍वालदम होकर भी यात्रा के विकल्‍प दिए जा सकते हैं। जाते वक्‍त कर्णप्रयाग, देवप्रयाग, गरुड़-बैजनाथ में घाटों का विकास कर पवित्र स्‍नान की व्‍यवस्‍था की जा सकती है। हरिद्वार में गंगा स्नान की इच्‍छा श्रद्धालु वापसी में पूरा कर सकते हैं। इस प्रकार अंदरुनी सड़कों को आपस में जोड़ता एक नेटवर्क विकसित कर तीर्थयात्रा के दबावों को विकेंद्रित करना बहुत जरूरी है। तीर्थयात्रा के प्राचीन पैदल पथों के प्रति भी नई सोच जगाई जा सकती है। बूढ़ा केदार से पंवाली कांठा और त्रियुगी नारायण का पारंपरिक पैदल मार्ग तो आज भी छोटे पैमाने पर ही सही, साधु-महात्‍माओं और साहसी यात्रियों के लिए केदारनाथ पहुंचने का साधन है। पैदल व अन्‍य वैकल्पिक मार्गों को प्रोत्‍साहित करने का लाभ उन पर्वतीय ग्रामांचलों को भी मिलेगा जो पलायन और खेती-किसानी के बज्राघात से जूझ रहे हैं।

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