व्योमेश चन्द्र जुगरान
उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग के कारण यहां के हरे-भरे वनों का काले कोढ़ में बदल जाने का सिलसिला नया नहीं है। यह कोई आकस्मिक आपदा नहीं बल्कि वनों पर टूटने वाला ऐसा सालाना कहर है जिसकी आवृत्ति और प्रवृत्ति अब किसी से छिपी नहीं है। चिन्ताजनक यह है कि पहाड़ों में वनाग्नि का सीजन लंबा होता जा रहा है और नवंबर से ही जंगलों में जहां-तहां आग की घटनाएं सामने आने लगी हैं। ऐसे में हर बीते वर्ष के साथ इस सवाल की उम्र लंबी होती जा रही है कि आखिर महकमें संकट के विकट होने तक क्यों सुस्ताते रहते हैं। क्यों नहीं पूरे साल ऐसे मसले पर गंभीर दिखते जो सीधे प्राणवायु से जुड़ा है और जिसमें नुकसान की भरपाई में बरसों लग जाते हैं।
जीडी पंत हिमालयी पर्यावरण एवं विकास संस्थान के एक अध्ययन के मुताबिक वनाग्नि का आकलन सिर्फ वृक्षों व वनस्पितियों को पहुंचे नुकसान से नहीं बल्कि वनों की संपूर्ण इको प्रणाली और संबंधित घटकों के ह्रास से किया जाना चाहिए। अध्ययन के मुताबिक जंगलों की आग ज्यादातर मामलों में तलहटी से चोटी की ओर फैलती है। इसे धराग्नि कहते हैं। धराग्नि पर काबू पाना बेहद कठिन होता है। यह हालांकि पेड़ों का अधिक नुकसान नहीं करती लेकिन जमीन और मिट्टी से गहरी दुश्मनी निकालती है। यह मिट्टी के अंदर मौजूद ऐसे जंतुओं, अति सूक्ष्म जीवों और कवक इत्यादि को नष्ट कर डालती है जो अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति से मृत कार्बनिक पदार्थों को पुन: पोषक तत्वों और गैसों में बदलने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। यह प्रक्रिया वनों और वनस्पितियों के विकास में बहुत मायने रखती है। आग का कहर इस पूरी प्रणाली को नष्ट करने के अलावा जंगल को भव्यता प्रदान करने वाले वन्यजीवों, पशु-पक्षियों, भांति-भाति के पादप-पुष्पों और औषधीय जड़ी-बूटियों को भी भस्म कर डालता है। नमी और जलधारण क्षमता क्षीण होने पर मिट्टी मॉनसूनी वर्षा के संग गाद की शक्ल में नदियों में बह जाती है। इससे प्रजातियों के कुदरती बीजारोपण की संभावना क्षीण हो जाती है। उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो मिट्टी बहने से जलधारी वृक्ष बांज और चौड़ी पत्ती वाले अग्निरोधी खड़ीक, सांदण, सिरिस, ग्वीराल, भीमल, शीशम, डैकण, गेंठी और तूण इत्यादि प्रजाति के वृक्षों की फिर से पनपाई असंभव होती जा रही है जबकि इनकी जगह अत्यधिक ज्वलनशील चीड़ अपना विस्तार करता जा रहा है।
चीड़ ही वह ‘खलवृक्ष’ है जो पहाड़ में वनाग्नि का सबसे बड़ा कारक माना जाता है। यह भूमि को न सिर्फ शुष्क बनाता है बल्कि इसकी अत्यधिक ज्वलनशील सूखी पत्तियां जिन्हें स्थानीय बोली में ‘पिरुल’ कहा जाता है, थोक भाव में गिरकर जमीन को पाट देती हैं। आग पाते ही पिरुल तेजी से बहुत बड़े क्षेत्र को अपनी जद में ले लेता है। एक आकलन के मुताबिक एक हेक्टेयर में विस्तृत चीड़ के पेड़ों से सालभर में सात टन पिरुल फैलता है। उत्तराखंड में यदि आठ हजार वर्ग किलोमीटर में चीड़ वन फैले हैं तो अनुमान लगाया जा सकता है कि शेष जंगल किस खौफनाक ढेर पर खडा है। समय-समय पर चीड़ के उन्मूलन और चौड़ी पत्ती के वनीकरण की योजनाएं बनती रही हैं। पिरुल से कोयला, ऊर्जा, उर्वरक यहां तक कि कपड़ा तैयार करने की भी बातें की जाती हैं। मगर सच यही है कि उत्तराखंड में जंगलों को पिरुल से मुक्त नहीं किया जा सका है। उपचार यही है कि सरकारी निगरानी में बड़े पैमाने पर चीड़ उन्मूलन का अभियान छेड़कर अग्नि प्रतिरोधी प्रजातियों के वनीकरण में गति लाई जाए। सत्तर के दशक में चिपको नेता सुंदरलाल बहुगुणा ने इसी अवधारणा के वशीभूत टिहरी जिले के विभिन्न इलाकों में चीड़ के खिलाफ अभियान छेड़कर शस्त्रपूजा जैसे अनुष्ठान किए थे।
यह बात सच है कि उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग को बुझाने के लिए सरकार ने तमाम संसाधनों को झोंकने के अलावा सेना की भी मदद ली है लेकिन यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि पिछले साल भी सेना के हेलीकॉप्टर नदियों से जल भर-भर कर जलते जंगलों में उड़ेल रहे थे। तब भी आईआईटी रुड़की की मदद से ‘क्लाउड सीडिंग’ का प्रस्ताव सुनाई दिया था और अग्निशमन की मद में अलग बजट का आवंटन व प्रशासनिक पेच कसे गए थे। लेकिन क्या स्थायी समाधान का कोई रणनीतिक मोर्चा खोला गया! क्या आग की वजहों और दुष्प्रभावों को ताड़ते हुए कोई ठोस नीति बनी, क्या वनाग्नि की तत्काल सूचना संबंधी किसी अत्याधुनिक तकनीक पर काम हुआ, क्या चीड़ के निदान और अग्निरोधी प्रजातियों के वनीकरण का कोई खाका खींचा गया, क्या वन कानूनों में सुधार कर स्थानीय लोगों को वन संसाधनों पर हकदारी और पहरेदारी का काम सौंपने पर सोचा गया, क्या जंगल को गांव के करीब लाने वाली झाडि़यों के निस्तारण पर काम हुआ और क्या संबंधित महकमों की कोई कड़ी जवाबदेही तय की गई!
इस बार भी वनाग्नि के लिए मानवजनित कारणों का ढोल पीटा गया और करीब 400 वन अपराध दर्ज किए गए। पांच दर्जन गिरफ्तारियां भी हुईं। इस पर बहुत कम बात हुई कि वनाग्नि के पीछे वनीकरण योजनाओं की असफलता पर पर्दा डालने, अवैध कटान, वन उत्पाद की चोरी और जंगली जानवरों का अवैध शिकार जैसे कुकृत्य भी हो सकते हैं। निसंदेह मानवीय क्रिया-कलापों का वनाग्नि से सीधा संबंध है लेकिन घास और अन्य भेषजों की अच्छी पैदावार के लिए पहाड़ी ढलानों पर आग लगाने की परम्परागत पद्धति को पर्वतीय ग्राम्य समाज सदियों से अपनाता आया है। अतीत में वनों पर स्थानीय हक-हकूकों के साये में यह काम (बणाक) सामुदायिक निगरानी में होता था। बणाक आज भी लगती है लेकिन वनाधिकारों की समाप्ति के साथ ही इसे बुझाने का सामुदायिक भाव खत्म हो चला है। अब गांव खाइयां यानी फायर लाइन खोदने की जहमत नहीं उठाते और वृक्ष अच्छादित पर्वतीय शृंखलाएं कई रातों तक आग की रौद्र मालांए पहनी नजर आती हैं। भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि आग लगने की एक हजार से अधिक घटनाएं सामने आ चुकी हैं। आग में झुलसकर कम से कम पांच लोगों के मरने की भी सूचना है। पर्यटन सीजन सामने खड़ा है और गढ़वाल व कुमाऊं मंडलों के कई सुरम्य स्थलों से नजर आने वाली हिमालयी छटा और आजू-बाजू पसरा खूबसूरत लैंडस्कैप धुएं की गर्त में गुम है। हर सुबह सूरज धुंध में लिपटे किसी अलसाये लाल गोले की तरह उग रहा है और उसकी अदृश्य रश्मियां धुंध में खोए मुकुटाकार हिमालय को खोजती फिरती हैं