संसद में बताया गया कि वर्ष 2050 एवं 2080 की अनुमानित जलवायु को ध्यान में रखते हुए फसल सिम्यूलेशन मॉडल का प्रयोग कर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन किया गया। जो बताता है कि यदि जलवायु अनुकूलन उपाय नही किए गए तो भारत में वर्षा आधारित क्षेत्रों में चावल की पैदावार 2050 में 20 फीसदी और 2080 में 47 फीसदी कम हो सकती है। जबकि जिन इलाकों में सिंचाई के साधन उपलब्ध हैं, वहां 2050 में 3.5 फीसदी और 2080 में 5 फीसदी चावल की पैदावार कम होने का अनुमान है।
सदी के अंत तक जलवायु परिवर्तन की वजह से 2050 में गेहूं की उपज में 19.3 फीसदी और 2080 में 40 फीसदी की कमी आने का अनुमान है, जबकि मक्के की पैदावार में क्रमशः 18 और 23 फीसदी तक कम होने का अनुमान है।
माना गया है कि जलवायु परिवर्तन से फसल की पैदावार कम होती है और उपज की पोषण गुणवत्ता भी कम हो जाती है। सूखे जैसी अत्यधिक घटनाएं भोजन और पोषक तत्वों की खपत को प्रभावित करती हैं और किसानों पर इसका प्रभाव पड़ता है।
जलवायु परिवर्तन के चावल की पैदावार पर होने वाले प्रभाव को लेकर संसद में बताया गया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदावार में कमी को रोकने के लिए सरकार की तैयारियां बताई। उन्होंने कहा कि पिछले तीन वर्षों के दौरान, 2020, 2021 और 2022 में, धान की 17 किस्मों सहित कुल 69 कम पानी वाली, सूखा सहिष्णु क्षेत्र फसल किस्मों का विकास किया गया है,ताकि उत्पादन प्रभावित न हो।
गौरतलब है कि चावल जल में उगने वाला पौधा है। इसे बोते समय खेत में लगभ 20 से 30 सेंटीमीटर गहरा जल भरा हुआ होना चाहिए। चावल की फसल के लिए 150 से 200 सेमी. वार्षिक वर्षा आवश्यक है। बोते समय वर्षा अधिक होनी चाहिए। ज्यों-ज्यों पकने का समय आता है। त्यों-त्यों कम वर्षा की आवश्यकता रहती है। 100 सेमी. वार्षिक वर्षा की समवर्षा रेखा चावल की कृषि करने वाले क्षेत्रों की प्राकृतिक सीमा निर्धारित करती है। 100 सेमी. से कम वार्षिक वर्षा वाले इलाकों में सिंचाई की सहायता से चावल की कृषि की जाती है।