संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2023 को मिलेट- ईयर मनाने की घोषणा की है | इस साल अलग-अलग संस्थाओं ने मोटे अनाज जैसे- बाजरा, कोदों, कटकी, ज्वार, रागी को बढ़ावा देने की योजनाओं की रूप-रेखा अमल में लायी जा रही है| गैरतलब है कि भारत की गिनती मोटे अनाज पैदा करने वाले देशों में प्रमुख है|
देश के किसान किसान इन किस्मों से खेती कर अधिक से अधिक लाभ ले सकें। इसके लिए अब इनके बीज दूसरे राज्यों में भेजे जाने लगे हैं। वैज्ञानिकों ने अभी सीजी कोदो-3 के 18 क्विंटल बीज तमिलनाडु, कर्नाटक, यूपी, एमपी, ओडिशा और उत्तराखंड समेत छत्तीसगढ़ के दूसरे जिलों में भेजा है।
दूसरी ओर छत्तीसगढ़ से सोनकुटकी के 2 क्विंटल बीज भी यूपी, एमपी और दक्षिण भारत में भेजे। सीजी रागी-3 के 16 क्विंटल बीज की असम, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड और मध्यप्रदेश के साथ ही अन्य राज्यों में सप्लाई कर दी है।
25 क्विं./हेक्टेयर उत्पादन
दूसरे राज्यों में भेजे गए बीजों के से 390 हेक्टेयर में खेती होगी। किसान इन बीजों का उपयोग करते 180 हेक्टेयर में कोदो, 50 हेक्टेयर में कुटकी व 160 हेक्टेयर में रागी की खेती कर सकेंगे। एक हेक्टेयर में 25 क्विंटल तक उत्पादन होगा। फसल तैयार होने में 115 दिन लगेंगे। सामान्य बीजों में सिर्फ 15 क्विंटल उत्पादन होता है।
कोदो-कुटकी बंजर जमीन में होती है। इसे खाद-पानी की जरूरत नहीं पड़ती। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा तथा 65.9 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाई जाती है। कोदो-कुटकी डायबिटीज, यकृत (गुर्दों) और मूत्राशय के लिए लाभकारी है।
मेथोनाइन पाया जाता है, जो स्टार्च की प्रधानता वाले भोज्य पदार्थों में नहीं पाया जाता। प्रति 100 ग्राम रागी में 7.3 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 72 ग्राम कार्बोहाइड्रेट और 2.7 ग्राम खनिज होता है जो इसे पौष्टिक बनाता है।
कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर प्रफुल्ल कुमार ने बताया कि 3 साल में सीजी कोदो -3, सीजी रागी -3 और कुटकी की छग सोनकुटकी किस्म तैयार की। 2021 में इन बीजों की किस्म को लेकर भारत सरकार ने गजट नोटिफिकेशन जारी किया। इसके बाद अब लघु धान्य फसलों को छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य राज्यों में भी भेजा रहा है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में कृषि वैज्ञानिकों ने फिर से रागी और कोदो की नई किस्म विकसित की है। इनमें रागी की बीआर 14-28 और कुटकी का बीएल-20-20-1 रखा है। डीन डॉ. आरएस नेताम ने बताया कृषि वैज्ञानिकों ने देश के विभिन्न हिस्सों में पाई जाने वाली कुटकी से स्थानीय प्रजाति की कुटकी व रागी का संकरण कराया गया।