जलवायु परिवर्तन की प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भारत में सबसे अधिक चावल उत्पादन करने का रेकॉर्ड बरकरार रखने वाले पश्चिम बंगाल में फसलों के पैटर्न में महत्वपूर्ण परिवर्तन नजर आ रहा है। राज्य के किसान अधिक लाभदायक विकल्पों के लिए परम्परागत अन्य प्रमुख फसलों की जगह नकदी, खाद्यान्न फसल और गैर खाद्यान्न फसलों की आकर्षक खेती की ओर रुख करने लगे हैं। उत्तर और दक्षिण बंगाल में अलग-अलग बदलाव देखने को मिल रहा है।
दक्षिण बंगाल के नदिया और मुर्शिदाबाद जिले के भारत-बांग्लादेश सीमावर्ती क्षेत्रों के किसान केला, दाल और मक्के की खेती कर रहे हैं, जहां पहले परंपरागत रूप से गेहूं उगाया जाता था। कुछ किसान गेहूं की जगह परम्परागत चावल और जूट की खेती कर रहे हैं, जो इस क्षेत्र के लिए नया है। क्षेत्र में गेहूं की जगह मक्का तेजी से ले रहा है। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, मक्के का उत्पादन आठ गुना बढ़ा है। 2011 में मक्के का उत्पादन 325,000 टन से बढक़र 2023 में 2.9 मिलियन टन हो गया है। पिछले पांच वर्षों में मक्के की खेती का औसत क्षेत्रफल 264,000 हेक्टेयर से बढक़र 400,000 हेक्टेयर हो गया है।
बंगाल में पिछले दशक में दालों का उत्पादन 142,000 टन से तीन गुना बढक़र 440,000 टन हो गया है। तिलहन उत्पादन लगभग दोगुना होकर 700,000 टन से 1.3 मिलियन टन हो गया है। राज्य सरकार ने नई संकर मक्का और दाल की किस्मों को भी बढ़ावा दिया है। नतीजा इन फसलों की खेती में वृद्धि हुई है।
राज्य के एक कृषि अधिकारी ने बताया कि गेहूं उत्पादकों को प्रति क्विंटल लगभग 3,200-3,800 रुपए और मक्के से उन्हें लगभग 1,800 रुपए मिलते हैं लेकिन, गेहूं की तुलना में मक्के का उत्पादन प्रति हेक्टेयर अधिक होता है। इसलिए यह अधिक लाभदायक होता है। केले की खेती अधिक लाभदायक है, खासकर त्योहारी सीजन में। पीक सीजन में हम प्रति क्लस्टर 350-400 रुपए और औसतन 150-200 रुपए कमा सकते हैं लेकिन, केला की खेती भी एक जुआ है। बाढ़ या भारी बारिश में इसकी फसल नष्ट हो जाती है। फिर भी अभी यह गेहूं का एक बेहतर विकल्प लग रहा है।
उत्तर बंगाल के दार्जिलिंग, डूआर्स और तराई क्षेत्र में परम्परागत तौर पर चाय की खेती होती है। आर्थिक लाभ को ध्यान में रखते हुए इसके आसपास के जलपाईगुड़ी, अलीपुरदुआर, कूचबिहार, उत्तरी दिनाजपुर और दार्जिलिंग जिलों के पिछड़े और ग्रामीण क्षेत्रों में पाट और अदरक की जगह छोटे-छोटे चाय बागान ले रहे हैं। उत्तर बंगाल में लगभग 30,000 ऐसे छोटे चाय बागान हैं।