छत्तीसगढ़ सरकार ने अब नक्सली नाम से बदनाम बस्तर की पहचान बदलने की ठान ली है. सरकार यहां के कोलेंग और दरभा की पहाड़ियों पर 320 एकड़ में कॉफी की खेती कर रहे हैं|
भारत में कृषि क्षेत्र के विकास-विस्तार से कई ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में बदलाव आया है| देश के जिन इलाकों में कभी हिंसा, क्रांति और नक्सलियों का आंतक छाया रहता था| आज वहीं फल, फूल, सब्जी और अनाज की फसलें लहलहा रही है| छत्तीसगढ़ की नक्सली इलाके के नाम से बदनाम बस्तर और इसके नजदीकी इलाके भी कुछ ऐसे ही सकारात्मक बदलावों में ढल रहे हैं| बस्तर की कोलेंग और दरभा की पहाडियों में कॉफी की बागवानी के लिए फेमस हो चुकी हैं| कॉफी का क्वालिटी उत्पादन हासिल करने के लिए 70 से अधिक आदिवासी किसान दिन-रात मेहनत कर रहे हैं| इसी का नतीजा है कि साल 2021 में 20 एकड़ से शुरू हुई कॉफी की खेती आज 320 एकड़ के दायरा कवर कर चुकी है|
छत्तीसगढ़ के आदिवासी किसानों की आजीविका बढ़ाने में ‘बस्तरिया कॉफी’ मील का पत्थर साबित होगी. बता दें कि यहां कॉफी की खेती के साथ-साथ उसकी प्रोसेसिंग भी की जाती है| इसके लिए सबसे पहले बागान से कॉफी के बीजों को सुखाया जाता है| इसके बाद प्रोसेसिंग यूनिट में बीज को अलग करके बाद में भूल लिया जाता है| जब कॉफी पीने योग्य हो जाती है तो फिल्टर कॉफी के लिए पाउडर तैयार करते हैं
अब बस्तर की कॉफी सिर्फ एक फसल नहीं रही, बल्कि एक ब्रांड बनने की दौड़ में शामिल होने जा रही है| यहां कॉफी से तमाम उत्पाद तैयार किये जा रहे हैं|
बस्तर में कॉफी की खेती के अलावा आम, कटहल, सीताफल, काली मिर्च जैसी नकली फसलें भी उगाई जा रही है. यहां की जलवायु के मुताबिक कॉफी की खेती के लिए अरेबिका–सेमरेमन, चंद्रगरी, द्वार्फ, एस-8, एस-9 कॉफी रोबूस्टा- सी एक्स आर किस्मों को उगाया जा रहा है. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, जल निकासी वाली मिट्टी और छायादार इलाकों में कॉफी के पौधे खूब पनपते हैं. एक बार पौधों की रोपाई करने के बाद 4 साल के अंदर फल उत्पादन मिलने लगता है| 18 से 35 पीएच तापमान में अगले 35 साल तक कॉफी के पौधों से फलों का उत्पादन ले सकते हैं| इन कॉफी के बागानों की सही देखभाल और अंतरवर्तीय खेती करके किसान अतिरिक्त आय भी ले सकते हैं|