भारत में दवाओं को मरीज के बजाय दवा बनाने वाली कंपनियों को होने वाले मुनाफे से जोड़ा जाता है। हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, मलेरिया, कोविड या दिल की बीमारियों का इलाज करने वाली कई प्रचलित दवाओं के ड्रग टेस्ट फ़ेल होते रहे हैं तो आम लोगों के लिए ये एक चिंता का विषय है।
लेकिन अगर साथ-साथ ये भी नज़र आए कि जिन कंपनियों की दवाओं के ड्रग टेस्ट फ़ेल हुए उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपयों के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदकर राजनीतिक दलों को चंदे के तौर पर दिए तो बात और भी गंभीर हो जाती है।
ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े उस डेटा के विश्लेषण से जिसे स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद चुनाव आयोग को उपलब्ध करवाया और जिसे चुनाव आयोग ने सार्वजनिक किया।
विशेषज्ञों का कहना है कि इस बात की जांच होनी चाहिए कि इन फ़ार्मा कंपनियों की दवाओं का परीक्षण में फ़ेल होने के बाद क्या हुआ. क्या उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई शुरू की गई?
क्या उन पर आरोपपत्र दायर किया गया था? अगर हाँ, तो क्या बॉन्ड के माध्यम से पैसा चुकाने के बाद उन कार्यों को रोक दिया गया था?
विशेषज्ञ ये भी कहते हैं कि चूंकि सरकार फ़ार्मा कंपनियों की रेगुलेटर या नियामक है इसलिए वह गुणवत्ता जांच और मंज़ूरी देने के मामले में उनके व्यवसायों पर बहुत ज़्यादा प्रभाव डालती है।
किसी चीज़ के लिए अनुमति देने में ज़रा सी भी देरी भी इन कंपनियों को महंगी पड़ सकती है. और ये माना जा रहा है कि शायद इसी सबसे बचने के लिए भी ये कंपनियां राजनीतिक दलों को पैसा देती हैं।
एक अन्य रिपोर्ट में हमने आपको बताया था कि एसबीआई ने जो डेटा पहली खेप में चुनाव आयोग को दिया था उसका विश्लेषण करने पर कुछ ऐसे उदाहरण दिखे जहां किसी साल किसी प्राइवेट कंपनी पर एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) या आयकर विभाग की छापेमारी हुई और उसके कुछ ही दिन बाद उस कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे।
ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें किसी कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे और कुछ दिन बाद उस पर छापेमारी हुई और उसके बाद कंपनी ने फिर इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे।