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तिल की खेती में लगने वाले रोग: रोकथाम के उपाय

तिल खरीफ ऋतु में उगाये जाने वाली भारत की मुख्य तिलहनी फसल है, जिसका हमारे देश में बहुत प्राचीन इतिहास रहा है| तिल की फसल प्रायः गर्म जलवायु में उगायी जाती है और इसकी खेती भारत के विभिन्न प्रदेशों में की जाती है|

तना गलन रोग :रोगग्रस्त पौधों की जड़ व तना भूरे रंग के हो जाते है। रोगी पौधों को ध्यान से देखने पर तने, शाखाओं और फलियों पर छोटे-छोटे काले दाने दिखाई देते हैं। रोगी पौधे जल्दी ही पक जाते हैं। रोग की रोकथाम हेतु बुवाई से पूर्व प्रति किलो बीज को 3 ग्राम कैप्टान या थाइरम से उपचारित करें।

पत्तियों के धब्बे :जीवाणु द्वारा होने वाले इस रोग में पत्तियों पर भूरे रंग के तारानुमा धब्बे दिखाई देते हैं। ये धब्बे धीरे-धीरे बढ़कर सारी पत्तियों पर फैल जाते हैं। रोग की रोकथाम हेतु बुवाई से पूर्व बीजों को 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 10 लीटर पानी के घोल में 2 घंटे डुबोकर सुखा लें। बुवाई के डेढ़ से दो माह बाद 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन के 10 लीटर पानी के घोल मिलाकर 15-15 दिन के अन्तर से दो तीन बार छिड़काव करें।

फली छेदक रोग : तिल के पौधों में फली छेदक रोग कीट की वजह से फैलता है| इस रोग का सबसे ज्यादा असर पौधे की पैदावार पर देखने को मिलता है| इस रोग के कीट पौधे की फलियों में छेद कर इसके अंदर से दानों को खाकर खराब कर देते हैं| रोग बढ़ने पर पौधे की फलियाँ अधिक मात्रा में खराब हो जाती है|

रोकथाम के उपाय : इस रोग की रोकथाम के लिए क्यूनालफॉस की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर रोग दिखाई देने पर करना चाहिए|
इसके अलावा पौधों पर कार्बेरिल या सेवीमोल की उचित मात्रा का छिडकाव करना भी उचित रहता है|
प्राकृतिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए पौधों नीम के तेल का छिडकाव फलियों के बनने के 10 दिन पहले से 15 दिन के अंतराल में दो से तीन बार करना चाहिए|

गाल मक्खी : तिल के पौधों में गाल मक्खी रोग कीट की वजह से फैलता है| इस रोग के गिडार का रंग सफेद मटमैला दिखाई देता है| जिसका प्रभाव पौधों पर फूल आने के वक्त ज्यादा देखने को मिलता है| इस रोग के लगने से पौधों को सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचता है| इस रोग के लगने पर बनने वाले फूल गाठों का रूप धारण कर लेते हैं. जिससे पौधों पर फलियाँ नही बन पाती|

रोकथाम के उपाय : इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास या कार्बेरिल की उचित मात्रा का छिडकाव पौधों पर 15 दिन के अंतराल में दो बार करना चाहिए|
प्राकृतिक तरीके से नियंत्रण के लिए पौधों पर फूल बनने के साथ से ही नीम आर्क का छिडकाव करना चाहिए|

फिलोड़ी रोग : तिल के पौधों में फिलोड़ी रोग का प्रभाव पत्ती मरोडक कीट की वजह से अधिक फैलता है| पौधों पर इस रोग का प्रभाव फूल खिलने के दौरान अधिक देखने को मिलता है| इस रोग के लगने पर पौधों पर दिखाई देने वाले फूल पत्तियों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और पौधे की लम्बाई बढ़ जाती है| इसके अलावा पौधों पर शखाएं अनियंत्रित दिखाई देने लगती हैं. और पौधों के ऊपरी भाग पर गुच्छे दिखाई देने लगते हैं| इस रोग के लगने से पौधों पर या तो फलियाँ बनती ही नही है| और अगर बनती हैं तो बहुत कम मात्रा में बनती हैं| जिनका विकास नही हो पाता है, जिसका सीधा असर पौधों की पैदावार पर पड़ता है|

झुलसा एवं अंगमारी : इस बीमारी की शुरूआत पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के शुष्क धब्बों से होती है, बाद में ये बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं और तनों पर भी इसका प्रभाव भूरी गहरी धारियों से होता है।

ज्यादा प्रकोप की स्थिति में शत प्रतिशत हानि होती है। रोग के प्रथम लक्षण दिखाई देते ही कैप्टान 2-5 किलोग्राम या मैन्कोजेब 2 किलोग्राम प्रति हैक्टर का छिड़काव 15 दिन के अन्तर से करें।

छाछ्या (पाऊडरी मिल्ड्यू) : सितम्बर माह के आरम्भ में पत्तियों की सतह पर सफेद-सा पाउडर जमा हो जाता है। ज्यादा प्रकोप होने पर पत्तियों की सतह पीली पड़कर सूख कर झड़ने लगती है। फसल में वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती है।

लक्षण दिखाई देते ही गंधक पाउडर 20 किलो प्रति हैक्टर भुरके या कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू. पी. 200 ग्राम प्रति हैक्टर की दर से छिड़कें। आवश्यकतानुसार 15 दिन बाद इसे फिर से दोहरायें।

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