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मेंथा / पिपरमेंट की खेती से तीन महीने में कमायें लाखों

विश्व में सबसे अधिक मेंथा का उत्पादन भारत में होता है। देश के पश्चिमी यूपी के कई जिलों का मेंथा के उत्पादन में एकाधिकार है और यूपी के किसानों ने मेंंथा की रोपाई शुरू कर दी है। देरी से बुवाई हेतु पौधों को नर्सरी में तैयार करके मार्च से अप्रैल के प्रथम सप्ताह तक खेत में पौधों की रोपाई अवश्य कर देना चाहिए। विलंब से मेंथा की खेती के लिए कोसी प्रजाति का उचित चुनाव करे|

वर्ष 2019-20 में उत्पादन लगभग 48,000-50,000 टन मेंथा ऑयल का उत्पादन हुआ था। इसकके बाद कोरोना के कारण किसानो की खेत-बाड़ी की कोशिश कम होने से पैदावार कम दर्ज की गई | देश में पैदा होने वाला लगभग 75 फीसदी मेंथा ऑयल का निर्यात किया जाता है। इसलिए घरेलू से ज्यादा विदेशी मांग कीमतों को तय करने में बड़ी भूमिका निभाती है। वर्तमान में मेंथा ऑयल के भाव 1200 से 1400 रुपए प्रति किलो के बीच चल रहे हैं। जो कि उत्पादन लागत के दोगुना से अधिक है।

मेंथा की खेती उत्तर प्रदेश के बदायूं, रामपुर, मुरादाबाद, बरेली, पीलीभीत, बाराबंकी, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, लखनऊ आदि जिलों में किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर की जाती है. पिछले कुछ वर्षों से मेंथा इन जिलों में जायद की प्रमुख फसल के रूप में अपना स्थान बना रही है. इसके तेल का उपयोग सुगन्ध के लिए व औषधि बनाने में किया जाता है.पिछले दो सीजन से मेंथा ऑयल का भाव 1200 रुपये 1800 रुपये किलोग्राम के आसपास रहने से किसानों की आमदनी बढ़ी है. इस वजह से किसानों ने मेंथा की खेती शुरू की है|एक एकड़ में किसानों को मेंथा की खेती पर करीब 30 हजार रुपये की लागत आती है, जबकि करीब 1 लाख का मेथा ऑयल पैदा होता है| इस तरह से प्रति एकड़ करीब 70 हजार रुपये की कमाई हो जाती है| इसके अलावा अवारा पशुओं से भी नुकसान काफी कम होता है, क्योंकि ज्यादातर जानवरों को मेंथा (पुदीना) का स्वाद नहीं भाता है| इसके अलावा अगर गर्मी में बोई जाने वाली फसलों की बात करें तो इससे आय दोगुनी के आसपास रहती है|

भारत दुनिया का सबसे बड़ा मेंथा ऑयल उत्पादक और निर्यातक है| मेंथा ऑयल की सबसे ज्यादा पैदावार यूपी में होती है| देश में होने वाले कुल मेंथा ऑयल के उत्पादन में यूपी की हिस्सेदारी करीब 80 फीसदी है|

पश्चिमी यूपी के जिले संभल, रामपुर, चंदौसी मेंथा का उत्पादन करने वाले बड़े क्षेत्र हैं, जबकि लखनऊ के पास बाराबंकी जिला भी मेंथा ऑयल का प्रमुख उत्पादक क्षेत्र है| इसके अलावा पंजाब, बिहार के तराई वाले इलाके और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में भी मेंथा की खेती हो रही है| मेंथा का इस्तेमाल दवाएं, सौंदर्य उत्पाद, टूथपेस्ट के साथ ही कंफेक्शनरी उत्पादों में सबसे ज्यादा होता है|

कृषि वैज्ञानिकों की जानकारी के मुताबिक, मेंथा की खेती क लिए पर्याप्त जीवांश अच्छी जल निकास वाली पी०एच० मान 6-7.5 वाली बलुई दोमट औक मटियारी दोमट भूमि उपयुक्त रहती है|

खेत की अच्छी तरह से जुताई करके भूमि को समतल बना लेते हैं| मेंथा की रोपाई के तुरन्त बाद में खेत में हल्का पानी लगाते हैं जिसके कारण मेंथा की पौध ठीक लग जाये|

मेंथा स्पाइकाटा एम०एस०एस०-1 (देशी पोदीना)कोसा (समय व देर से रोपाई हेतु उत्तम) (जापानी पोदीना)हिमालय गोमती (एम०ए०एच०-9)एम०एस०एस०-1 एच०वाई-77 मेंथा पिप्रेटा-कुकरैल मेंथा की चर्चित प्रजाति है|

मेन्था की जड़ों की बुवाई अगस्त माह में नर्सरी में कर देते हैं| नर्सरी को ऊँचे स्थान में बनाते है ताकि इसे जलभराव से रोका जा सके| अधिक वर्षा हो जाने पर जल का निकास करना चाहिए|

आमतौर पर फरवरी-मार्च में इसकी खेती होती है| लेकिन, इस वैराइटी के विकसित होने से जनवरी में भी बुआई संभव हो पाई है| इसके अलावा अर्ली मिंट तकनीक के आने से किसानों को काफी लाभ हुआ है|

आमतौर पर एक किलोग्राम मेंथा ऑयल के उत्पादन पर किसानों को 500 रुपये की लागत आती थी| लेकिन इस तकनीक के आने से लागत में करीब 200 रुपये प्रति किलोग्राम की कमी आई है. इससे किसानों ने मेंथा की खेती का रुख किया है|

जापानी पोदीना या मेंथा की रोपाई के लिए लाइन की दूरी 30-40 सेमी० देशी पोदीना 45-60 सेमी० तथा जापानी पोदीना में पौधों से पौधों की दूरी 15 सेमी० रखना चाहिए. जड़ों की रोपाई 3 से 5 सेमी० की गहराई पर कूंड़ों में करना चाहिए|

रोपाई के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए| बुवाई/रोपाई हेतु 4-5 कुन्तल जड़ों के 8-10 सेमी० के टुकड़े उपयुक्त होते हैं|

सामान्य परिस्थितियों में मेंथा की अच्छी उपज के लिए 120-150 किलोग्राम नाइट्रोजन 50-60 किग्रा० फास्फोरस 40 किग्रा०पोटाश तथा 20 किग्रा० सल्फर प्रति हे० की दर से प्रयोग करना चाहिए|

फास्फोरस, पोटाश तथा सल्फर की पूरी मात्रा तथा 30-35 किग्रा० नाइट्रोजन बुवाई/रोपाई से पूर्व कूंड़ों में प्रयोग करना चाहिए| शेष नाइट्रोजन को बुवाई/रोपाई के लगभग 45 दिन, पर 70-80 दिन पर तथा पहली कटाई के 20 दिन पश्चात् देना चाहिए|

मेंथा में सिंचाई भूमि की किस्म तापमान तथा हवाओं की तीव्रता पर निर्भर करती है| मेंथा में पहली सिंचाई बुवाई/रोपाई के तुरन्त बाद कर देना चाहिए| इसके पश्चात् 20-25 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए व प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई करना आवश्यक है|

खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथलीन 30 ई०सी० के 3.3 लीटर प्रति हे० को 700-800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई/रोपाई के पश्चात् ओट आने पर यथाशीघ्र छिड़काव करें|

दीमक जड़ों को क्षति पहुंचाती है, फलस्वरूप जमाव पर बुरा असर पड़ता है| बाद में प्रकोप होने पर पौधें सूख जाते है| खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप होने पर क्लोरपाइरीफास 2.5 लीटर प्रति हे० की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करें|

यह पत्तियों की निचली सतह पर रहती है और पत्तियों को खाती है| जिससे तेल की प्रतिशत मात्रा कम हो जाती है| इस कीट से फसल की सुरक्षा के लिए डाइकलोर वास 500 मिली० या फेनवेलरेट 750 मिली० प्रति हे० की दर से 600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें| झुन्ड में दिये गये अण्डों एवं प्रारम्भिक अवस्था में झुण्ड में खा रही सूंड़ियों को इक्कठा कर नष्ट कर देना चाहिए| पतंगों को प्रकाश से आकर्षित कर मार देना चाहिए|

मेंथा फसल की कटाई प्रायः दो बार की जाती है. पहली कटाई के लगभग 100-120 दिन पर जब पौधों में कलियां आने लगे की जाती है| पौधों की कटाई जमीन की सतह से 4-5 सेमी ऊंचाई पर करनी चाहिए|

दूसरी कटाई, पहली कटाई के लगभग 70-80 दिन पर करें. कटाई के बाद पौधों को 2-3 घन्टे तक खुली धूप में छोड़ दें. कटी फसल को छाया में हल्का सुखाकर जल्दी आसवन विधि द्वारा यंत्र से तेल निकाल लें|

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