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शकरकंद की नई किस्म से सुधर रही है कई सूबों के किसानों की सेहत

सर्दियों में शकरकंद खाना लोगों को पसंद है। तीज-त्योहारों से लेकर सेहतमंद होने के लिए भी चिकित्सक इस कंद को लाभकारी बताते हैं। भारत में शकरकंद की नई किस्म किसानों को भा रही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार के कई जिलों में किसान इस शकरकंद की खेती कर रहे हैं।

शकरकंद की एक खास किस्म की खेती की तैयारी की जा रही है और उसे बढ़ावा भी दिया जा रहा है। किसानों को उत्पादन का उचित मूल्य मिले इसके लिए शकरकंद की एक ख़ास किस्म की खेती की तैयारी की जा रही है। जो अभी तक की प्रचलित किस्मों से हटकर कई खूबियों वाली है। एसटी-14 नाम की शकरकंद की इस किस्म को जल्द पैदावार देने के लिए तैयार किए गया है।

इस किस्म के कंद रोपाई के लगभग 105 से 110 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं। इस किस्म के कंद बाहर से हल्के पीले दिखाई देते हैं। और अंदर का गूदा हल्का नारंगी या पीला दिखाई देता है। इस किस्म के पौधों का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 से 20 टन के बीच पाया जाता हैं।

शकरकंद के इस विशेष किस्म की खेती की शुरुआत अब बस्ती जिले के आबोहवा में भी की जा रही है। जिसकी खरीददारी आन्ध्रप्रदेश के हैदराबाद बाद की एक कंपनी करेगी जो शकरकंद के इस विशेष किस्म से तमाम तरह के उत्पाद तैयार करती है। वर्तमान में शकरकंद के इस किस्म की मांग बहुत है लेकिन मांग के सापेक्ष उत्पादन अभी बहुत कम है। ऐसे में किसानों द्वारा बनाये गयी टीम के जरिये हैदराबाद की इस कंपनी नें संर्पक कर जिले में शकरकंद की उन्नत किस्म एसटी-14 की खेती कराये जाने की पहल की है।

शकरकंद की यह किस्म पोषक तत्वों की प्रचुर मात्रा वाली है जिसमें मिनरल्स, जिंक, फास्फोरस, विटामिन आदि अन्य किस्मों से ज्यादा पाई जाती है जो सेहत के नजरिये से भी बेहद ख़ास मानी जा सकती है।

रोपाई करने के 120 दिन बाद शकरकंद की फसल तैयार हो जाती है। खाद के रूप में पोटाश नाइट्रोजन और फॉस्फोसर का उपयोग कर सकते हैं। अगर किसान भाई एक हेक्टेयर में शकरकंद की खेती करते हैं, तो उनको 25 टन तक पैदावार मिल सकती है। अगर किसान बाजार में 10 रुपये किलो भी शकरकंद बेचते हैं, तो 25 टन शकरकंद बेचकर ढ़ाई लाख रुपये की कमाई कर सकते हैं।

शकरकंद एक तरह का कंद है। इसकी फार्मिंग आलू की तरह की जाती है। इसकी खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी ज्यादा उपयुक्त माना गया है. वहीं, मिट्टी का PH मान 5.8 से 6.8 के बीच होना चाहिए। इसकी खेती हमेशा सूखी जमीन पर की जाती है। पथरीली और जलभराव वाली जमीन पर इसकी खेती करने पर फसल को नुकसान पहुंच सकता है।

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