आगामी 3 और 7 मार्च को उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की 110 सीटों पर चुनाव होना है। इन सीटों पर मतदान छठे और सातवें चरण में होगा | भाजपा और सपा गठबंधन में शामिल तीन प्रमुख दल निषाद पाटी, अपना दल और सुभासपा के अधिकतर प्रत्याशी इन दोनों चरणों में मैदान में हैं। अन्य पिछड़ा वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली इन पार्टियों के नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर हैं। निषाद पार्टी के संजय निषाद और अपना दल की अनुप्रिया पटेल विधानसभा चुनाव नहीं लड़ रहे हैं लेकिन सुभासपा के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर और अपना दल कमेरावादी की कृष्णा पटेल अपनी जीत के लिए पसीने बहा रही हैं। दोनों ही दलों ने चुनाव प्रचार अभियान में इन समुदायों के नेताओं को झोंक दिया है। अब उनकी अग्नि परीक्षा होनी बाकी है। इनकी पार्टियां जीतती हैं तो यह क्षेत्रीय क्षत्रप बादशाह कहलाएंगे, चुनाव हारते हैं तो इनकी राजनीति पर सवाल उठने शुरू हो जाएंगे।
पिछड़ा वर्ग से एक अन्य प्रमुख नेता सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष और विधायक ओम प्रकाश राजभर गाजीपुर की जहूराबाद सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। बीजेपी ने उनके खिलाफ कालीचरण राजभर को खड़ा किया है जो उनकी वोटों में सेंध लगाएंगे। यहां उन्हें बीएसपी से सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है जिसने सपा की बागी उम्मीदवार शादाब फातिमा को मैदान में उतार दिया है। ओम प्रकाश राजभर सूबे में सपा गठबंधन के आधार हैं।
इसी चुनाव में केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल कुर्मी-केंद्रित पार्टी है। भाजपा गठबंधन के साथ अपना दल के प्रत्याशी मैदान में हैं। अपना दल को भाजपा गठबंधन में 19 सीटें मिली हैं। लेकिन अपना दल को कई निर्वाचन क्षेत्रों में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। अनुप्रिया खुद अपनी पार्टी के लिए जोरदार प्रचार कर रही हैं। चुनाव में जीत उनका भविष्य भी तय करेगी।
निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद के लिए यह चुनाव ‘करो या मरो’ की स्थिति में है। बीजेपी के साथ गठबंधन में निषाद पार्टी का अच्छा प्रदर्शन ही भविष्य में बीजेपी के साथ रिश्ता तय करेगा। निषाद पार्टी को भाजपा गठबंधन ने कुल 16 सीटें दी हैं। इनमें से कुछ सीटों पर निषाद पार्टी के उम्मीदवार भाजपा के सिंबल पर लड़ रहे हैं। खुद संजय निषाद का बेटा भाजपा के सिंबल पर मैदान में है।
छठे और सातवें चरण का चुनाव पूरी तरह जातिगत समीकरणों पर निर्भर है। भाजपा छोड़कर आए स्वामी प्रसाद मौर्य हों या फिर भाजपा छोड़कर सपा में शामिल हुए अन्य भाजपा के विधायक| सभी जातिगत समीकरणों के आधार पर ही अपनी दलीय निष्ठा बदले हैं। जीतते हैं तो राजनीति में जाति का रसूख बढ़ेगा। हारे तो जातीय राजनीति का अंत माना जाएगा।