बिहार के सरकारी स्कूलों में अब पहली से दसवीं तक की कक्षा में कृषि की पढ़ाई होगी। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को जारी निर्देश के बाद बिहार सरकार ने पहल की है। पाठ्यक्रम तैयार करने की जिम्मेदारी बिहार कृषि विश्वविद्यालय सबौर (भागलपुर), राजेंद्र केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा (समस्तीपुर), पशु विज्ञान विश्वविद्यालय (पटना), एससीईआरटी, जिला शिक्षा पदाधिकारी भागलपुर के अलावा कृषि विज्ञान केंद्र को कार्यक्रम समन्वयक और एससीईआरटी (राज्य शिक्षा शोध एवं प्रशिक्षण परिषद) के निदेशक को सौंपी गई है।
सरकार का मानना है कि गांवों में रहने के बावजूद कई बच्चे धान और गेहूं जैसी फसलों को पहचान नहीं पाते। अन्य फसलों और सब्जियों की जानकारी से भी दूर होते जा रहे हैं। इसी को ध्यान में रखकर राज्य सरकार नवाचार करने जा रही है। प्रयास है कि बच्चों पर बगैर अतिरिक्त बोझ डाले कृषि शिक्षा को प्राइमरी स्कूल स्तर से जोड़ा जाए। इससे बच्चों में खेती-बारी की वैज्ञानिक समझ का विस्तार होगा।
इसके लिए कृषि से जुड़ी शिक्षा के व्यावहारिक उपयोग को स्कूल स्तर पर ले जाना आवश्यक है। प्रयास है कि प्राइमरी स्कूल से ही कृषि के विषय को पढ़ाया जाए। इससे बच्चों को दो लाभ होंगे। पहला यह कि गांवों के बच्चों में खेती से जुड़ी जो एक स्वाभाविक समझ होती है, उसका वैज्ञानिक तरीके से विस्तार होगा। दूसरा लाभ होगा कि बच्चे खेती और इससे जुड़ी तकनीक के साथ व्यापार और कारोबार के बारे में अपने परिवार को ज्यादा जानकारी दे पाएंगे। इससे कृषि उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलेगा।
कृषि शिक्षा परिषद के सचिव अनिल झा कहते हैं कि कृषि में आत्मनिर्भरता की बात सिर्फ खाद्यान्न तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह गांव की पूरी अर्थव्यवस्था की बात है। देश के अलग-अलग हिस्से में कृषि उत्पादों का मूल्यवर्धन करके देश-दुनिया के बाजारों में पहुंचाने का मिशन है। कृषि में आत्मनिर्भरता का अर्थ किसानों को उत्पादक के साथ-साथ उद्यमी बनाने का भी है। किसान जब खेती को उद्योग की भांति लेकर आगे बढ़ेंगे तो बड़े स्तर पर गांव के पास ही रोजगार और स्वरोजगार के अवसर पैदा होंगे।
कृषि शिक्षा परिषद के सचिव अनिल झा का कहना है कि शहरीकरण की होड़ के कारण शहर ही नहीं, गांव के बच्चे भी धान और गेहूं के पौधे की पहचान से दूर रहे हैं। यहां तक कि खेती-किसानी से संबंधित मामूली समझ से भी अनजान होते जा रहे हैं, जबकि बिहार की 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर आधारित है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर यह पहल की जा रही है। कोशिश है कि ‘क’ से कबूतर के साथ बच्चों को ‘क’ से कतरनी भी पढ़ाया जाए।