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नमक प्रभावित भूमि में बासमती की बंपर उपज: किसानों ने तकनीकी सहयोग से बदली खेती की तस्वीर

भारत में भूमि की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले सबसे बड़े मुद्दों में से एक है नमक प्रभावित मिट्टी। यह समस्या देश के लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र को प्रभावित करती है, जिसमें अकेले उत्तर प्रदेश में 1.4 मिलियन हेक्टेयर भूमि इस संकट से जूझ रही है। ऐसी भूमि पर खेती करना हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है, लेकिन नवीन तकनीकों और उन्नत फसल किस्मों के प्रयोग से अब यह स्थिति बदल रही है। किसानों की आय बढ़ाने और भूमि क्षरण को रोकने की दिशा में हो रहे इन प्रयासों का अद्भुत उदाहरण उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले से सामने आया है।

सॉडिसिटी और लवणता जैसी समस्याओं से जूझ रहे जौनपुर जिले के पांच गांवों- लाजीपार, बीबीपुर, हसनपुर, चकवा, और भाकुड़ा में 2016-2018 के बीच 21 किसानों के साथ यह अध्ययन किया गया। इन गांवों की मिट्टी का pH मान 8.85 से 9.74 के बीच रहा, जो फसल उत्पादन के लिए अत्यधिक प्रतिकूल है। मानसून में जलभराव, मौसमी असंगति और आवारा पशुओं के कारण इन किसानों को केवल चावल और गेहूं पर निर्भर रहना पड़ता था।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण और किसानों के सहयोग से बासमती सीएसआर-30 जैसी नमक सहिष्णु किस्मों ने खेती के इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया।

हसनपुर और चकवा गांवों में वैज्ञानिक-किसान गोष्ठियों का आयोजन किया गया, जिसमें 60 से अधिक किसानों ने भाग लिया। इन सत्रों में किसानों को नमक सहिष्णु खेती की उन्नत तकनीकों, पोषण सुरक्षा के लिए किचन गार्डनिंग, मृदा प्रबंधन, और पशुधन प्रबंधन के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई। इसके साथ ही किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड वितरित किए गए, जिससे वे अपनी मिट्टी की बेहतर देखभाल और खेती की लागत को कम कर सके।

अध्ययन के दौरान बासमती सीएसआर-30 को 1.40-2.21 टन/हेक्टेयर की उपज क्षमता के साथ एक उत्कृष्ट विकल्प के रूप में पहचाना गया। इस किस्म को अपनाने से किसानों को ₹44,800 से ₹70,400 प्रति हेक्टेयर की सकल आय हुई, जो अन्य मोटे अनाजों की तुलना में कहीं अधिक थी।

बासमती सीएसआर-30 ने स्थानीय मोटे चावल की किस्मों की तुलना में बेहतर अनुकूलन क्षमता दिखाई और कम सिंचाई की आवश्यकता रही। किसानों ने बताया कि इस किस्म ने पानी की पंपिंग लागत में ₹3,000/हेक्टेयर तक की बचत सुनिश्चित की।

कई किसानों ने फसल रोपाई के लिए डबल ट्रांसप्लांट की सांडा विधि अपनाई, जिससे वे सिंचाई और श्रम लागत को बचाने में सफल रहे। इस विधि से उगाई गई फसलें खरपतवार नियंत्रण में भी कारगर साबित हुईं, जिससे किसानों को खरपतवारनाशकों के उपयोग में कमी आई।

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