जौ भारत की सबसे प्राचीनतम खाद्यान्न फसल है। आज इसकी खेती विश्व के लगभग सभी देशों में की जाती है। वैदिक काल से ही जौ का प्रयोग यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों में होता है| जौ का उपयोग एक औद्योगिक चारे के रूप में भी किया जाता है। शराब माल्ट उद्योगों व सत्तू के रूप में जौ की जरूरत रहती है| गेहूं व चने में मिलाकर मानव आहार तथा पशु चारे व खली के रूप में किया जाता है। इसके अलावा जौ का सेवन हृदय रोग, मधुमेह सहित कई रोगों में लाभकारी है।
जौ की खेती मुख्यत: कम पानी व सीमित सिचाई वाले क्षेत्रों में की जाती है। सीमित सिचाई वाले क्षेत्रों में किसान गेहूं व सरसों की अपेक्षा जौ की फसल उगाकर ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं। कम लागत में कम उपजाऊ तथा हल्की उसर भूमि में भी जौं की खेती की जा सकती है।
किसान जौ की उन्नत किस्म का प्रमाणित बीज बोकर अच्छी पैदावार ले सकते हैं। बीएच-75, बीएच-393,बीएच-902, बीएच-946 तथा बी एच-885 किस्में रोग रोधी, अधिक माल्टयुक्त ज्यादा उपज देने वाली हैं। ये किस्में 20 से 22 क्विंटल उपज प्रति एकड़ देने की क्षमता रखती है। जौ कि बारानी क्षेत्रों में बिजाई मध्य अक्टूबर से शुरू कर देनी चाहिए तथा सींचित दशा में 15 नवंबर से 30 नवंबर तक बिजाई का सही समय रहता है।
जौ की किस्म बीएच-885 की बिजाई 15 से 25 नवंबर के बीच कर लें। जौं का बीज सिचित दशा में 35 किलो, बारानी दशा मे 30 किलो तथा पछेती बिजाई में 45 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ डालना चाहिए। बीएच-885 किस्म का 40 किलो बीज प्रति एकड़ बोते समय से बोई गई फसल में दो खुड की दूरी 22 सेंटीमीटर तथा पछेती बिजाई में 20 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। रोग-रोधी किस्में जैसे बीएच 902, 946 व 885 की बिजाई करें। यह किस्म समय पर बिजाई करने पर 70 डेढ़ कुन्तल प्रति एकड़ पैदावार दे सकती हैं।
बिजाई के 40 से 45 दिन बाद पहली सिचाई व 80 से 85 दिन बाद दूसरी सिचाई करनी चाहिए। बारानी क्षेत्रों में निराई गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथ नमी का भी संरक्षण होता है।
खाद व उर्वरक का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करें। सामान्य सिफारिश के आधार पर सिचित फसल में 75 किलो सुपर फास्फेट, 50 किलो यूरिया, 10 किलो म्यूरेट पोटाश की प्रति एकड़ आवश्यकता पड़ती है। फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा तथा यूरिया की आधी मात्रा बिजाई के समय शेष आधी मात्रा पहली सिचाई पर डाले बरौनी क्षेत्र में सिचित फसल से आधी उर्वरक बिजाई के समय ही डालें। दीमक से रोकथाम के लिए 100 किलो जौ के बीज को 600 मिलीलीटर क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी दवा का पानी में साढे बारह लीटर घोल बनाकर पहले दिन शाम को उपचारित करके रात भर पड़ा रहने दें। उपचार के बाद बंद व खुली कांगीयारी रोकथाम के लिए दो ग्राम बावस्टीन प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण के लिए 400 मिलीलीटर पीलाकसाडेन के साथ एलग्रिप 20 ग्राम को 200 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति एकड़ जो बिजाई के 40 से 45 दिन बाद छिड़काव करें। इससे घास के कुल खरपतवार वह चोड़ी पत्ती वाले दोनों तरह के खरपतवार नियंत्रित हो जाएंगे।