पारस अमरोही
छत्तीसगढ़ का आदिवासी आबादी वाला जिला है-जशपुर। इनमें कोरवा आबादी वाले किसान रहते हैं। छोटे घरों में ग़रीबी भी साथ में रहती है। हर किसान की ज़मीन भी बमुश्किल एक बीघा। जिनके पास पैसा और ज़मीन नहीं और घर ही है, वह मीलों दूर मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट भरते हैं।
छत्तीसगढ़-सरकार, नाबार्ड तथा खेती और बागवानी महकमे की मदद से अपने पैरों पर खड़े हो रहे हैं। अपनी ज़मीन पर इन आदिवासियों ने आम,लीची, काजू, khalihannews.comकभी सेब के बागों में फल तोड़ने वाले मज़दूर अब अपने जशपुर जिले में उगा रहे हैं आम, नाशपाती , लीची, तय आम, नाशपाती , लीची, स्ट्रॉबेरी, अमरूद जैसे फल उगा रहे हैं।
सरकारी संस्थाओं से इन किसानों को पौधे और तकनीकी मदद मिले। पहली बार नाशपाती के पेड़ों पर फल नज़र आये तो इन किसानों को हिमाचल प्रदेश के कुल्लू व मनाली के सेब के बगीचे भूल गये। जशपुर में गर्मी और जाड़े के तापमान में ज्यादा अंतर भी नहीं होता है। मौसम ने पेड़ों पर फल लगने दिये और जशपुर की नाशपाती पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में बिकने लगी। अब यह नाशपाती दिल्ली में भी पहुंच रही है।
बीते 10 साल में जशपुर फलों की खेती में इतना मजबूत हो चुका है कि सालाना 14 लाख क्विंटल से ज्यादा अलग-अलग वैरायटी के फल जशपुर से khalihannews.comछत्तीसगढ़ के दूसरे शहरों या राज्यों तक जा रहे हैं। इलाके में 27 हजार से ज्यादा किसान करीब 45 हजार एकड़ जमीन पर खेती कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर किसान आदिवासी हैं। पेड़ो की कटाई-छंटाई से लेकर कीड़ों से बचाव तक की जानकारी इन्हें कॄषि विज्ञान केंद्र द्वारा भी मिलती है।
कभी जशपुर के आदिवासी बहुल इलाकों में किसान अपनी छोटी-छोटी ज़मीनों पर मोटे अनाज व। धान, गेहूं व रामतिल जैसी परंपरागत फसलों से लोग बमुश्किल छह-सात हज़ार रुपए ही कमाते थे। फलदार पेड़ लगाने से इन्कार करने वाले वहीं किसान अब अपनी उपज से 80 हज़ार तक कमाने लायक हैं। अब सरकार जशपुर की आबोहवा में चायपत्ती के बागान लगाने की संभावना खोज रही है।
PHOTO CREDIT – pixabay.com