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मनरेगा मजदूरों को काम और दाम नहीं, दूसरे राज्यों को पलायन

बिहार के सुपौल जिले में मनरेगा से करीब 1.63 लाख श्रमिक रजिस्टर्ड हैं। इसमें से करीब सवा लाख सक्रिय मरनेगा मजदूर हैं। प्रवासी कामगारों को जोड़ दिया जाए तो मजदूरों की संख्या और आंकड़ा और भी बढ़ जाता है।

इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों को रोजगार दिलाने की जिम्मेदारी मनरेगा के पास है। इसके बावजूद मजदूरों को कोरोना काल के बाद काम नहीं के बराबर मिला है। ग्राम पंचायतों का गठन होने के बाद भी सही तरीके से योजनाओं का क्रियान्वयन नहीं होने से मनरेगा मजदूरों की स्थिति चरमरा गई है। जिले के 181 पंचायतों में मनरेगा का हाल बेहाल है। आंकड़ों के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2021-22 में 4266803 लाख मानव दिवस सृजन का लक्ष्य था। इसमें से 20 फरवरी तक महज 2744580 मानव दिवस का सृजन हुआ है। इससे मजदूरों को काम नहीं मिल रहा है।

मनरेगा के तहत सबसे ज्यादा दिन रोजगार छत्तीसगढ़ में मिलेगा| यहां पर सरकार ने साल में 150 दिन की रोजगार गारंटी दे दी है| बढ़े हुए 50 कार्य दिवस के खर्च का वहन राज्य सरकार खुद करेगी| जबकि शेष 100 दिन का पैसा केंद्र सरकार देगी| कोई भी राज्य ऐसा फैसला कर सकता है|

लोकसभा में पेश की गई ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2018-19 में इस स्कीम के तहत प्रति परिवार औसत 51 दिन ही रोजगार मिल पाया था|

उत्तर प्रदेश और बिहार में तो राष्ट्रीय औसत से कम 42-42 दिन, हरियाणा में 34 दिन, पंजाब में महज 30 दिन, मध्य प्रदेश में 52 और राजस्थान में प्रति मजदूर औसतन 57 दिन ही रोजगार मिला| सबसे ज्यादा 92 दिन तक काम मिजोरम के मजदूरों को मिला|

यूपी में औसतन 42 दिन काम मिला| यानी इस स्कीम से जुड़े प्रत्येक परिवार को साल में सिर्फ 8442 रुपये मिले. जबकि बिहार में 8022 रुपये| हरियाणा में सबसे अधिक मनरेगा मजदूरी है लेकिन इसने औसतन 34 दिन ही काम दिया| इसका मतलब ये है कि प्रत्येक परिवार को साल भर में यहां 10336 रुपये ही मिले|

मनरेगा के तहत सबसे ज्यादा दिन रोजगार छत्तीसगढ़ में मिलेगा| यहां पर सरकार ने साल में 150 दिन की रोजगार गारंटी दे दी है| बढ़े हुए 50 कार्य दिवस के खर्च का वहन राज्य सरकार खुद करेगी| जबकि शेष 100 दिन का पैसा केंद्र सरकार देगी| कोई भी राज्य ऐसा फैसला कर सकता है|

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के जानकार कहते हैं कि अगर इस स्कीम को कृषि कार्य से जोड़ दिया जाए तो एक साथ कई समस्याओं का समाधान हो जाएगा| कृषि क्षेत्र के लिए मनरेगा श्रमिकों की मजदूरी 300 रुपये कर दी जाए| इसमें से 200 रुपये सरकार दे और 100 रुपए किसान| तब इन्हें कम से कम 200 दिन काम मिल जाएगा| कृषि क्षेत्र की लागत कम हो जाएगी और इन मजदूरों की मेहनत का इस्तेमाल गैर जरूरी कार्यों में बंद हो जाएगा|

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जानकार कहते हैं कि 2020-21 में इसका बजट 61,500 करोड़ रुपये का है, जबकि पिछले वित्त वर्ष में इस पर 71 हजार करोड़ खर्च हुए थे| अब शहरों से जोग लोग गांवों में आए हैं उन्हें मिलाकर यदि 10 करोड़ लोगों को रोजगार देना पड़ा तो 20 हजार रुपये सालाना औसत को जोड़ने पर इसका बजट 2 लाख करोड़ रुपये का बनाना पड़ेगा|

मनमोहन सिंह सरकार में गरीबों के लिए शुरू की गई यह स्कीम रोजगार विहीन लोगों के लिए एक ताकत बनकर उभरी| यही नहीं इसे मोदी सरकार ने भी जारी रखा हुआ है| कुछ नहीं से कुछ बेहतर वाली स्थिति है. इसके जरिए जल संकट को कम करने की दिशा में काफी काम करवाया गया है|

यह ‘जल शक्ति अभियान का बड़ा हिस्सा है| ग्रामीण विकास मंत्रालय का दावा है कि इसके तहत 1 अप्रैल 2014 से लेकर 31 मार्च 2019 तक देश के छोटे-बड़े 20,03,744 तालाबों को ठीक करवाया गया| दावा है कि इसके जरिए महाराष्ट्र में जलयुक्त शिवहर अभियान से 22,590 गांवों में सकारात्मक असर पड़ा| जबकि मुख्यमंत्री जल स्वावलंबन योजना के तहत इसके जॉब कार्ड धारकों द्वारा राजस्थान के 12,056 गांवों में जल संकट से निपटने का काम करवाया गया|

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